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________________ सप्तम उद्देशक १४१. वह वायुकाय की हिंसा से निवृत्त होने में समर्थ है। १४२. आतंकदर्शी पुरुष हिंसा को अहित रूप जानकर छोड़ता है । १४३. जो अध्यात्म को जानता है, वह वाह्य को जानता हैं। जो वाह्य को जानता है, वह अध्यात्म को जानता है । १४४. इस बात को तुला पर तौलें। १४५. इस [ अर्हत-शासन ] में [ मुनि ] शान्त और करुणाशील होते हैं, अतः वे वीजन की आकांक्षा नहीं करते । १४६. तू उन्हें पृथक-पृथक लज्जमान/हीनभावयुक्त देख । १४७. ऐसे कितने ही भिक्षुक स्वाभिमानपूर्वक कहते हैं - 'हम अनगार हैं।' १४८. जो नाना प्रकार के शस्त्रों द्वारा वायु-कर्म की क्रिया में संलग्न होकर वायुकायिक जीवों की अनेक प्रकार से हिसा करता है । १४६. निश्चय ही, इस विषय में भगवान् ने प्रज्ञापूर्वक समझाया है। १५०. और इस जीवन के लिए प्रशंसा, सम्मान एवं पूजा के लिए, जन्म, मरण एवं मुक्ति के लिए दु.खों से छूटने के लिए [प्राणी कर्म-वन्धन की प्रवृत्ति करता है। १५१. वह स्वयं ही वायु-शस्त्र का प्रयोग करता है, दूसरों से वायु-शस्त्र को प्रयोग करवाता है और वायु-शस्त्र के प्रयोग करने वालर का समर्थन करता है । शस्त्र-परिज्ञा ४५
SR No.010580
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages238
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size5 MB
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