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________________ षष्ठ उद्देशक ११५ वही मैं कहता हूँ ये त्रस प्राणी है जैसे किअंडज, पोतज, जरायुज, रसज, संस्वेदज, समूच्छिम, उद्भिज्ज/भूमिज और औपपातिक । ११६. यह [ असलोक ] संसार है, ऐसा कहा जाता है। ११७. यह मंद और अज्ञानी के लिए होता है । ११८. चिन्तन एवं परिशीलन करके देखें कि प्रत्येक प्राणी मुख चाहता है। ११६. सभी प्राणियों, सभी भूतों, सभी जीवों और सभी सत्त्वों के लिए अशाता और अपरिनिर्वाण ( दुःख ) भयंकर दुःख रूप है। १२०. प्राणी प्रत्येक दिशा और विदिशा में त्रास/दुःख पाते हैं । १२१. तू यत्र-तत्र पृथक-पृथक देख ! आतुर मनुष्य दुःख देते हैं । १२२. प्राणी पृथक-पृथक हैं। १२३. तू उन्हें पृथक पृथक लज्जमान/हीनभावयुक्त देख । १२४. ऐसे कितने ही भिक्षुक स्वाभिमानपूर्वक कहते हैं- 'हम अनगार हैं ।', १२५. जो नाना प्रकार के शस्त्रों द्वारा स-कर्म की क्रिया में संलग्न होकर त्रसकायिक जीवों की अनेक प्रकार से हिंसा करता है। १२६. निश्चय ही, इस विषय में भगवान् ने प्रज्ञापूर्वक समझाया है। शस्त्र-परिजर
SR No.010580
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages238
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size5 MB
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