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________________ ६७. तू उन्हें पृथक-पृथक लज्जमान/हीनभावयुक्त देख । ६८. ऐसे कितने ही भिक्षुक स्वाभिमानपूर्वक कहते हैं - 'हम अनगार हैं ।' ६६. जो नाना प्रकार के शस्त्रों द्वारा वनस्पति-कर्म की क्रिया में संलग्न होकर वनस्पतिकायिक जीवों की अनेक प्रकार से हिंसा करते हैं । १००. निश्चय ही, इस विषय में भगवान् ने प्रज्ञापूर्वक समझाया है । १०१. और इस जीवन के लिए ही प्रशंसा, सम्मान एवं पूजा के लिए, जन्म, मरण एवं मुक्ति के लिए दु.खों से छूटने के लिए [ प्राणी कर्म-बन्धन की प्रवृत्ति करता है । ] १०२. वह स्वयं ही वनस्पति-शस्त्र का प्रयोग करता है, दूसरों से वनस्पति-शस्त्र का प्रयोग करवाता है और वनस्पति-शस्त्र के प्रयोग करनेवाला का समर्थन करता है। १०३. वह हिंसा अहित के लिए है ओर वही अवोधि के लिए है । १०४. वह साधु उस हिंसा को जानता हुआ ग्राह्य-मार्ग पर उपस्थित होता है । १०५. भगवान् या अनगार से सुनकर कुछ लोगों को यह ज्ञात हो जाता है यही [ हिंसा ] ग्रन्थि है, यही मोह है, यही मृत्यु है, यही नरक है। १०६. यह आसक्ति ही लोक है। १०७. जो नाना प्रकार के शस्त्रों द्वारा वनस्पति-कर्म की क्रिया में संलग्न होकर वनस्पतिकायिक जीवों की अनेक प्रकार से हिंसा करता है। शस्त्र-परिज्ञा
SR No.010580
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages238
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size5 MB
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