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________________ २५. वह भिक्षु श्मशान, शून्यागार, गिरि-गुफा, वृक्ष-मूल या कुम्हार आयतन में पराक्रम करता हो, स्थित हो, बैठा हो या सोया हो, वहाँ कहीं विचरण करते समय उस भिक्षु के समीप श्राकर गाथापति आत्मगत प्रेक्षा से प्राणियों, भूतों जीवों और सत्त्वों का समारम्भ कर उद्देश्यपूर्वक अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, प्रतिग्रह, कम्बल या पादपोंछन क्रय कर, उधार लेकर, छीनकर, आज्ञाहीन होकर देना चाहता है, आवास-गृह बनवाना जाहता है । यह सब वह भिक्षु के निमित्त करता है। २६. अपनी सम्मति से, अन्य वार्तालाप से या अन्य से सुनकर उस भिक्षु को ज्ञात हो जाता है कि यह गाथापति मेरे लिए प्राणियों, भूतों, जीवों और सत्त्वों का समारम्भ कर उद्देश्यपूर्वक अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, प्रतिग्रह, कम्बल या पानोंछन क्रय कर, उधार लेकर, छीनकर याज्ञाहीन होकर देना चाहता है, आवास-गृह बनवाता है । उसका प्रतिलेख कर भिक्षु आगम एवं आज्ञा के अनुसार सेवन न करे। -~~-ऐसा मै कहता हूँ। २७. ग्रन्थियों से स्पृप्ट या अस्पृष्ट होने पर भिक्षु को पकड़कर पीड़ित करते हैं । वे कहते है मागे, हनो, कूटो, छेदो, जलाओ, पकायो, लूंटो, छीनो काटो, यातना दो। स्पर्शो/कष्टों से स्पृष्ट होने पर धीर-साधक सहन करे । अथवा अन्य रीति से तर्कपूर्वक आचार-गोचर को समझाए । अथवा आत्मगुप्त होकर क्रमशः समभाव का प्रतिलेख कर वचन-गोचर का गोपन करे - मौन रहे। २८. बुद्ध-पुरुषों के द्वारा ऐसा प्रवेदित है-- समनुज-पुरुप असमनुन-पुरुप को अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, प्रतिग्रह, · कम्बल या पादपोंछन प्रदान न करे, निमन्त्रित न करे, विशेष प्रादरपूर्वक वयावृत्य न करे। _ --ऐसर मैं कहता हूँ। २६. मतिमान मोहण/ज्ञानी द्वोरो प्रवेदित धर्म को समझो। विमोक्ष १८
SR No.010580
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages238
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size5 MB
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