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________________ प्रथम उद्देशक १. मैं वही कहता हूँ-साधक समनुज्ञ या असमनुन को अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, प्रतिग्रह पात्र या पादपोछन न दे, न निमन्त्रित करे, न अत्यंत आदरपूर्वक्र वैयावृत्य करे। -ऐमा मैं कहता हूँ। २. यह ध्रव है, ऐसा समझो। ३. अशन, पान, ग्याद्य, स्वाच, वरना, पात्र, कम्बल या पादोंछन प्राप्त हों या न हों, भोजन किया हो या न किया हो, मार्ग को छोड़कर या लाँधकर भिन्न धर्म का पालन करते हुए, लाते हुए या जाते हुए वह दे, निमंत्रित करे और वैयावृत्य करे, तो भी उसे छत्यन्त आदर न दें । --ऐसा मैं कहता हूँ। ४. इस संसार में कुछ सावकों को प्राचार-गोचर ज्ञात नहीं है । वे प्रारम्भार्थी, आरम्भ-समर्थक, हिंसक, घातक अश्वा हनन करने वालों का अनुमोदन करते है। ५. अथवा वे अदत्तादान करते हैं। ६. अथवा वे वादों का प्रतिपादन पारते हैं । जैसे कि-- लोक है, लोक नहीं है, लोक ध्रव है, लोक अध्र व है, लोक सादि हैं, लोक अनादि है, लोक सपर्यवसित है, लोक अपर्यवसित है, लोक सुकृत है या दुप्कृत है; कल्याण है या पाप है; साधु है या असावु है; सिद्धि है या असिद्धि है; नरक है या नरफ नहीं है । विमोक्ष १७६
SR No.010580
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages238
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size5 MB
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