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________________ द्वितीय उद्देशक १३. लोक में मनुष्य पीडित, परिजीर्ण, सम्बोधिरहित एवं अज्ञायक है । १४. इस लोक में मनुष्य व्यथित है । १५. तू यत्र-तत्र पृथक्-पृथक् देख ! आतुर मनुष्य [ पृथ्वीकाय को ] दुःख देते १६. [ पृथ्वीकायिक ] प्राणी पृथक-पृथक हैं । १७. नू उन्हें पृथक-पृथक लज्जमान हीनभावयुक्त देख । १८. ऐसे कितने ही भिक्षुक स्वाभिमानपूर्वक कहते हैं - 'हम अनगार हैं।' १९. जो नाना प्रकार के स्त्रों द्वारा पृथ्वी-कर्म की क्रिया में संलग्न होकर पृथ्वीकायिक जीवों की अनेक प्रकार से हिसा करते हैं । २०. निश्चय ही, इस विषय में भगवान् ने प्रज्ञापूर्वक समझाया है । २१. और इस जीवन के लिए प्रशंसा, सम्मान एवं पूजा के लिए, जन्म, मरण एवं मुक्ति के लिए दुःखों से छूटने के लिए [प्राणी कर्म-वन्धन की प्रवृत्ति करता है । ] २२. वह स्वयं ही पृथ्वी-शस्त्र (हल आदि ) का प्रयोग करता है, दूसरों से पृथ्वी-शस्त्र का प्रयोग करवाता है और पृथ्वी-शस्त्र के प्रयोग करनेवाले का समर्थन करता है। २३. वह हिंसा अहित के लिए है और वही अवोधि के लिए है । २४. वह साधु उस हिंमा को जानता हुआ ग्राह्य-मार्ग पर उपस्थित होता है । शस्त्र-परिजा
SR No.010580
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages238
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size5 MB
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