SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 172
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४४, यह उत्तरवाद/श्रेष्ठ कथन मनुष्यों के लिए व्याख्यायित हैं । ४५. इसमें लीन पुरुप उस कर्म-वन्ध को नष्ट करता हुआ परिज्ञात आदानीय/ ग्राह्य पर्याय से उसका त्याग करता है । ४६. इनमें से किसी की एकचर्या होती है । ४७. इससे इतर मुनि इतर कुलों से शुद्धपणा और सर्वेषणा के द्वारा परिव्रजन करते हैं, वे मेघावी हैं। ४८. सुरभित या दुरभित अथवा भैरव प्राणी प्राणों को क्लेश देते हैं । ४६. वे धीर-पुरुष [मुनि] उन स्पर्शो से स्पृष्ट होने पर सहन करे । -ऐसा मैं कहता हूँ। तृतीय उद्देशक ५०. सम्यक् प्रकार से प्रख्यात धर्म-रत विधूत-कल्पी मुनि इस पादान (उपकरण) को त्याग करके जो अचेलक रहता है, उस भिक्षु के लिए ऐसा नहीं होता हैं- मेरा वस्त्र परिजीर्ण हैं, इसलिए वस्त्र की याचना करूंगा, सूत्र/धागे की याचना करूंगा, सूई की याचना करूंगा, सांधूगा, सीऊंगा, बढ़ाऊँगा, छोटा बनाऊँगा, पहनूंगा, प्रोदूंगा। ५१. अथवा उसमें पराक्रम करते हुए अचेलक तृण-स्पर्श स्पर्श/पीड़ित करते हैं, शीत-स्पर्श स्पर्श करते हैं, तेज-स्पर्श स्पर्श करते हैं, दंशमशक-स्पर्श स्पर्श करते हैं। ५२. अचेलक लघुता को प्राप्त करता हुआ एक रूप, अनेक रूपएवं विविध रूपों के स्पर्शों को सहन करता है । वह तप से अमिसमन्वित होता है। पुत १६३
SR No.010580
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages238
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy