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________________ १८. वह तू ही है, जिसे तू हंतव्य मानता है। वह तू ही है, जिसे तू आज्ञापयितव्य मानता है। वह तू ही है, जिसे तू परितापयितव्य मानता है। वह तू ही है, जिसे तू परिग्रहीतव्य मानता है । वह तू ही है, जिसे तू अपद्रावयितव्य (मारने योग्य) मानता है। ६६. [मुनि] ऋजु और प्रतिबुद्धजीवी होता है, इसलिए न हनन करता है, न विधात । १००. स्वयं के द्वारा अनुसंवेदित होने के कारण हनन की प्रार्थना/इच्छा न करे। १०१. जो आत्मा है, वह विज्ञाता है । जो विज्ञाता है वह आत्मा है । १०२. जिसके द्वारा जाना जाता है, वह आत्मा है। १०३. इसकी प्रतीति से परिसंख्यान/सही अनुमान होता है । १०४. यह आत्मवादी सम्यक् पारगामी कहलाता है। -ऐसा मैं कहता हूँ। षष्ठ उद्देशक १०५. कुछ पुरुप अनाज्ञा में उपस्थित होते हैं, कुछ व्यक्ति आज्ञा में निरुपस्थित होते हैं । यह स्थिति तुम्हारी न हो । यह कुशल पुरुप [ महावीर ] कर दर्शन है। १०६. उसमें दृष्टि करे, उसमें तन्मय वने उसे प्रमुख बनाये, उसकी, स्मृति करे, उसमें वास करे। लोकसार
SR No.010580
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages238
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size5 MB
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