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________________ ८७. लोक में सर्वत: [मन, वचन और शरीर से ] गुप्त महर्षियों को देख, जो प्रज्ञावान्, प्रबुद्ध और आरम्भ / हिंसा से उपरत है । ८. देखो, यह सम्यक् है । ८६. वे काल / मृत्यु की प्राकांक्षा करते हुए परिव्रजन करते हैं । - ऐसा मैं कहता हूँ । ६०. विचिकित्सा -समापन्न / शंकाशील श्रात्मा समाधि प्राप्त नहीं कर सकती । ६१. कुछ पुरुष आश्रित होकर अनुगमन करते हैं, कुछ अनाश्रित होकर अनुगमन करते हैं । श्रनुगामियों के वीच अननुगामी को निर्वेद कैसे नहीं होगा ? ६२ . वही सत्य निःशंक है, जो जिनेश्वरों/तीर्थकरों द्वारा प्ररूपित हैं । ९३. श्रद्धावान्, समनज्ञ और संप्रव्रज्यमान मुनि सम्यक् मानते हुए कभी सम्यक् होता है, सम्यक् मानते हुए कभी असम्यक् होता है, असम्यक् मानते हुए कभी सम्यक् होता है, असम्यक् मानते हुए कभी असम्यक् होता है । सम्यक् मानते हुए सम्यक् हो या ग्रसम्यक् उत्प्रेक्षा से सम्यक् हो जाता है । असम्यक् मानते हुए सम्यक् हो या असम्यक् उत्प्रेक्षा से असम्यक् हो जाता है। ४. उत्प्रेक्षमान (द्रष्टा / उदासीन ) पुरुप अनुत्प्रेक्षमान पुरुष से कहे --- सम्यक् (सत्य) की उत्प्रेक्षा / विचारणा करो । ५. इस प्रकार [ सम्यक् सम्यक् / कर्म की ] सन्धि / ग्रन्थि नष्ट होती है । ६६. उत्थित और स्थित पुरुष की गति को देखो । ९७. इस / हिंसामूलक बालभाव में स्वयं को उपदर्शित, स्थापित मत करो । लोकसार १४३
SR No.010580
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages238
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size5 MB
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