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________________ ६७. किसी की व्यक्त वाणी से भी मनुष्य कुपित हो जाते हैं । ६८. उन्नतमान होने पर मनुष्य महान् मोह से मूढ़ हो जाता है । ६६. अज्ञान और प्रदर्शन के कारण पुनः-पुनः आने वाली वहुत-सी वाघानों का अतिक्रमण करना दुप्कर है।। ७०. तुम ऐसे मत बनो। ७१. यह कुशल-पुरुप (महावीर) का दर्शन है । ७२. उस (महावीर-दर्शन) में दृष्टि कर, उसे प्रमुख मान, उसका ज्ञान कर उसी में वास करे। ७३. यतना/संयमपूर्वक विहार करने वाला मुनि चित्त लगाकर पथ पर ध्यान से चले। ७४. वे पाते हुए, लौटते हुए, संकुचित होते, फैलते हुए, ठहरे हुए, धूलि में लिपटते हुए प्राणियों को देखकर चले । ७५. कभी क्रिया करते हुए गुणसमित मुनि की देह का स्पर्श पाकर कुछ प्राणी उत्पीड़ित/मृत हो जाते हैं। ७६. इससे लोक में वेदन-वेद/वेदनीय कर्म का वन्ध होता है। ७७. प्राकुट्टिकृत/प्रवृत्तिमूलक जो कर्म हैं, उन्हें जानकर विवेक/क्षय करो। ७८, उस [ कर्म ] का अप्रमाद से विवेक/क्षय होता है, ऐसा वेदविद् [ महावीर] ने कहा है। ७६. वह विपुलदर्शी, विपुलज्ञानी, उपशान्त, समित/सत्प्रवृत्त, [ रत्नत्रय-] सहित सदाजयीमुनि [ स्त्रियों को ] देखकर मन में विचार करता है लोकसार १३६
SR No.010580
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages238
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size5 MB
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