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________________ ५७. प्रत्येक प्राणी की शाता को देखते हुए वर्णामिलापी होकर सर्वलोक में किंचित भी हिंसा न करे। ५८. एक आत्मा की ओर अभिमुख रहे, विरोधी दिशाओं को पार करे, निविण्णचारी/विरक्त रहे, प्रजा में अरत बने । ५६. उस सम्बुद्ध-पुरुप के लिए प्रज्ञा से पाप-कर्म अकरणीय है। ६०. उसका अन्वेपण न करे । ६१. जो सम्यक्त्व देखता है, वह मौन/मुनित्व देखता है, जो मौन/मुनित्व देखता है, वह सम्यक्त्व देखता है। ६२. शिथिल, आर्द्र, गुणास्वादी/विपयासक्त, वक्रसमाचारी/मायावी, प्रमत्त, गृहवासी के लिए यह शक्य नहीं । ६३. मुनि मौन स्वीकार कर कर्म-शरीर को धुने । ६४. समत्वदर्शी वीर प्रान्त (नीरस) और लूखा/क्ष [ भोजन ] का सेवन करते हैं। ६५. इस [ संसार-] प्रवाह को तरने वाला मुनि तीर्ण, मुक्त और विरत कहा कहा जाता है। -ऐसा मैं कहता हूँ। चतुर्थ उद्देशक ६६. अव्यक्त/अपरिपक्व भिक्षु ग्रामानुग्राम विहार करने से दुर्यातना सहता है, दुष्पराक्रम करता है। लोकसार
SR No.010580
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages238
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size5 MB
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