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________________ ४५. प्रार्य पुरुषों ने समता में धर्म कहा है । ४६. जैसा यहाँ मैने सन्धि/परिग्रहकर्म-सन्धि को झुलसाया है, इस प्रकार अन्यत्र सन्धि को झुलसाना दुष्कर होता है । इसलिए मैं कहता हूँ, शक्ति का निगृहन/गोपन मत करो। ४७. जो/कोई पहले उठता है, पश्चात् पतित नहीं होता है । जो कोई पहले उठता है, पश्चात् पतित होता है । जो, कोई न पहले उठता है, न पश्चात् पतित होता है। ४८. जो परित्याग करके लोक का आश्रय लेते हैं, वे वैसे ही [ गृहवासी जैसे ] हो जाते हैं। ४६. यह जानकर मुनि (भगवान) ने कहा- इस [ अर्हन-शासन ] में प्राजा कांक्षी अनासक्त पण्डित-पुरुप रात्रि के प्रथम एवं अन्तिमयाम में यतनाशील बने । सदाशील की सम्प्रेक्षा करे । [तत्त्व सुनकर अकाम और अक्रुद्ध बने । ५०. इससे (स्वयं से) ही युद्ध कर । वाह्य युद्ध से तुम्हारा क्या प्रयोजन है ? ५१. युद्ध के योग्य होना निश्चय ही दुर्लभ है । ५२. यथार्थतः कुशल-पुरुप (भगवान) ने [युद्ध-प्रसंग] में परिज्ञा और विवेक का प्ररूपण किया है। ५३. पथ-च्युत हुए वाल/अज्ञानी-पुरुप गर्भ में ही रहते हैं । ५४. इस [ अर्हत्-शासन 1 में कहा जाता है रूप या हिसा में [ प्रासक्त पुरुप पथ च्युत हो जाता है ।] ५५. वह मुनि ही पथ पर आरूढ़ है, जो लोक को अन्यथा देखता है । ५६. इस प्रकार कर्म को जानकर वह सर्वशः/सर्वथा हिंसा नहीं करता, संयम करता है, प्रगल्भता नहीं करता । लोकसार
SR No.010580
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages238
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size5 MB
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