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________________ ३८. वह दूसरों का वध, दूसरों को परिताप, दूसरों का परिग्रह, जनपद का वध, जनपद को परिताप, जनपद का परिग्रह [करना चाहता है। ३६. इस अर्थ का सेवन करके वह वेग/संसार-प्रवाह में उपस्थित है । ४०. इसलिए ज्ञानी पुरुप इसे निस्सार देखकर दूसरी बार सेवन न करे। ४१. उत्पाद और च्यवन को जानकर तत्त्वद्रप्टा अनन्य (ध्रौव्य) का आचरण करे। ४२. वह न तो क्षय करे, न क्षय करवाए और न ही क्षय करने वाले का समर्थन करे। ४३. प्रजा की जुगुप्सा एवं आनन्द में अरत वनें । ४४. अनुपमदर्शी पापकर्मो से दूर रहे । ४५. वीर-पुरुप क्रोध एवं मान का हनन करे । लोभ को महान् नरक समझे। इसलिए वीर-पुरुप वध से विरत रहे । लघुभूतगामी-पुरुप (साम्यभावी) शोक का छेदन करे। ४६. इन्द्रियविजयी धीर-पुरुप ग्रन्थियों को जानकर, शोक को जानकर विचरण करे। इस मनुष्य-जन्म में उन्मज्ज/कच्छपवत् इन्द्रिय-संयमी होकर प्राणियों के प्रारणों का वध न करे। -ऐसा मैं कहता हूँ। तृतीय उद्देशक ४७. लोक की सन्धि को जानकर वाह्य (जगत) को प्रात्मवत देख । शीतोष्णीयं
SR No.010580
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages238
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size5 MB
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