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________________ १३. शब्द और रूप की उपेक्षा करने वाला ऋजु-पुरुप मार की आशंका एवं मृत्यु से मुक्त होता है । १४. काम से अप्रमत्त, पापकर्म से उपरत, पुरुष वीर, आत्मगुप्त और क्षेत्रज्ञ है। १५. जो पर्याय की उत्पत्ति का शस्त्र जानता है, वह अशस्त्र को जानता है । जो अशस्त्र को जानता है, वह पर्याय की उत्पत्ति का शस्त्र जानता है। १६. अकर्म का व्यवहार नहीं रहता है। १७. कर्म से उपाधियाँ उत्पन्न होती हैं । १८. कर्म का प्रतिलेख करें। १६. उसी क्षण कर्म के मूल का प्रतिलेख कर सभी उपायों को ग्रहण करके दोनों अन्तों/तटों [ राग और द्वेप 1 से अदृश्यमान रहे । २०. वह परिज्ञात मेधावी-पुरुप लोक को जानकर, लोक-संज्ञा का त्याग करे । २१. वह मेधावी पराक्रम करे । -ऐसा मैं कहता हूँ। द्वितीय उद्देशक २२. हे आर्य ! इस संसार में जन्म और वृद्धि को देख । प्राणियों को समझ एवं उनकी शाता को देख । ये तीन [ सम्यग् दर्शन, ज्ञान, चारित्र ] विद्याएँ परम हैं, यह जानकर समत्वदर्शी पाप नहीं करता है। २३. इस संसार में मृत्यु-पाश से उन्मुक्त वनो। शीतोष्णीय
SR No.010580
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages238
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_acharang
File Size5 MB
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