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________________ फफफफफफफफफफफफ555 5555555555555555555555! मद्यं भजतां तेषां हिंसा संजायतेऽवश्यम् । 163 11 - अनेक पदार्थों को सड़ा-गलाकर जिसमें अनेक जीवों की उत्पत्ति और हिंसा होती है-तरल रस रूप में निर्माण की जाती है। ऐसी मद्य का निर्माण व पान दोनों हिंसा के कारण हैं। मद्य अर्थात् शराब सड़े-गले पदार्थों में पनपने वाले अनन्त सूक्ष्म जीवों के गलित शरीरों का सत्व-जिसके पान से सत्य-असत्य मां- बहिन और शत्रु-मित्र का भेद समाप्त होकर कुमार्ग की प्रवृत्ति होती है। मदिरा के नशे में डूबे शराबी के मुंह में कुत्ता भी पेशाब कर जाये तो भी विवेक बुद्धि नहीं होती। यह व्यसन महापतन की ओर ले जाने वाला है। इतिहास साक्षी है कि मुगल साम्राज्य एवं नवाबी का सारा प्रभुत्व सुरासुन्दरी के लोभी नवाबों द्वारा समाप्त हो गया। अनजाने में पी गई शराब यादव कुमारों के एवं समस्त द्वारिका के जलने का कारण बनी। अधिकांश मानसिक एवं शारीरिक व्याधियों का एकमात्र कारण यह मद्यपान ही है। जो मदिरा पान करता है, उसमें अभिमान, भय, ग्लानि, हास्य, अरति, शोक, काम, एवं क्रोधादि कषाय रूप विकारी भावों की उत्पत्ति होती है। वैज्ञानिकों के अनुसार मद्यपान से लीवर का कैंसर हो जाता है, स्नायुतंत्र पर बुरा प्रभाव पड़ता है। शराबी की सन्तान अस्वस्थ और मंदबुद्धि होती है। मद्यपान एक ऐसा व्यसन है जिससे प्राणी अपना ज्ञान और चेतना सब कुछ खो बैठता है। यह धीमा विष है, अतः त्याज्य है । वेश्यागमन - वेश्या के स्वरूप का वर्णन आ. अमितगति ने अपने श्रावकाचार में इस प्रकार किया है या परं हृदये धत्ते परेण सह भाषते । परं निषेधते लुब्धा, परमाह्वायते तथा । वदनं जघनं यस्यां नीच लोकमला विलम् । गणिकां सेवमानस्य तां शौचं वद् कीदृशम् ।। - जो अपने मन में अन्य को रखती है, बात दूसरे से करती है, लोभ से अन्य पुरुष का सेवन करती है, संकेतों से अन्य को बुलाती है, उससे स्नेह कैसा? जिसके वदन और जघन मल से सदा मलीन रहते हों उसको सेवन करने वाले की पवित्रता कैसी? वेश्या सेवन से भयभीत, चिन्तित एवं व्याकुल मानव दरिद्रता एवं कुत्सित रोगों का आगार बन जाता है। दुर्गुणों का शिकार हो जाति एवं समाज से बहिष्कृत होकर दुःखी जीवन जीने को विवश हो प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति ग्रन्थ 525 फफफफ 155555555 फफफफफफफफफफफफफ
SR No.010579
Book TitlePrashammurti Acharya Shantisagar Chani Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKapurchand Jain
PublisherMahavir Tier Agencies PVT LTD Khatuali
Publication Year1997
Total Pages595
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth
File Size22 MB
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