SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 549
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - LELI PUNITIEनामाााा . F IEFIFIEI 4हीनाधिक मानोन्मान दोष है। इस प्रकार के दोषों को दृष्टिगत करते हुए 15 समाज में व्यवहार किया जाये तो परस्पर में आस्था या विश्वास का वातावरण बन सकता है। 4.ब्रह्मचर्याणवत:जो पाप के भय से परस्त्रियों के प्रति न स्वयं गमन करता है और न दूसरों का गमन कराता है वह परस्त्री त्याग अथवा स्वदार सन्तोष नाम का अणुव्रत है। आज समाचार पत्रों में बलात्कार जैसी घृणित घटनाओं के समाचार पढ़ने को मिलते हैं। यदि इस व्रत के प्रति लोगों में आस्था हो जाय तो आज जो समाज में भय का वातावरण व्याप्त है। वह समाप्त हो । सकता है। 5. परिग्रह परिमाणाणवत: धन-धान्य आदि परिग्रह का परिमाण कर उससे अधिक में इच्छा रहित होना परिमित परिग्रह अथवा इच्छा परिमाण नाम का अणुव्रत होता है। व्यक्ति की इच्छायें अनन्त होती हैं। जैनाचार में स्पष्ट निरूपित किया गया है कि इच्छाओं की वृद्धि में सुख नहीं उनको सीमित करने में ही सुख है। आज जगह-जगह असमानता की दूरी बढ़ रही है गरीब और ज्यादा गरीब हो रहा है और अमीर ज्यादा अमीर। कई व्यक्तियों के प पास तन ढकने को कपडे तक नहीं है। कई लोगों के पास इतना धन है ॥ कि उन्हें छिपाने की दिन रात चिन्ता लगी हुई है। यदि इस अणुव्रत की भावना मानव में समाविष्ट हो जाये तो उन्हें स्वयं के लिए शान्ति मिल सकती है तथा दूसरों को भी लाभ मिल सकता है। आज पूँजीवादी प्रवृत्तियों के कारण गरीबों की प्रत्येक क्षेत्र में परेशानियां बढ़ रही हैं। इसको जीवन का अंग बनाने जसे समाज में समता का वातावरण बन सकता है। इस प्रकार इन व्रतों का परिपालन श्रावकों के लिए तो उपयोगी है ॥ ही परन्तु समग्र मानव समाज के लिए भी उपयोगी है। उनको इहलोक तथा LE परलोक दोनों में ही सुख-शान्ति मिल सकती है। रत्नकरण्डश्रावकाचार में कहा गया है कि अतिचार रहित पांच अणुव्रत रूपी निधियाँ उस स्वर्गलोक 4 का फल देती हैं जिसमें अवधिज्ञान, अणिमा, महिमा आदि आठ गण और सात : धातुओं से रहित वैक्रियक शरीर प्राप्त होते हैं। नीतिसारसमुच्चय नामक ग्रंथ -1 के श्लोक न. 91 में लिखा है कि सगुण (देशव्रती वा विशिष्ट ज्ञानी) व निर्गुण LF (अव्रती वा जिसमें ज्ञान की न्यूनता है ऐसा भी) श्रावक सदैव मान्य है, आदरणीय है। उसकी अवज्ञा नहीं करना चाहिए क्योंकि धर्म की प्रवृत्ति श्रावकों के अधीन है। 454545454545454545454545454545454555 डॉ. अशोक कुमार जैन । - पिलानी | प्रशमभूति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ ा 503 HERE
SR No.010579
Book TitlePrashammurti Acharya Shantisagar Chani Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKapurchand Jain
PublisherMahavir Tier Agencies PVT LTD Khatuali
Publication Year1997
Total Pages595
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy