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________________ नामदानानानानानानानामा -t -tut-1--TFE जो न्यायपूर्वक धन उपार्जन करता हो, अपने गुरुओं की पूजा उपासना करता हो, सत्य बोलता हो, धर्म, अर्थ, काम इन तीन पुरुषार्थों का अविरुद्ध | सेवन करता हो, अपने योग्य स्त्री, मुहल्ला, घर वाला हो, योग्य आहार करने वाला हो, सज्जन पुरुषों की संगति करता हो, बुद्धिमान हो, कृतज्ञ हो. इन्द्रिय विजयी हो, धर्मोपदेश को सुनता हो, पापों से भयभीत हो, दयालुचित्त हो ऐसा - पुरुष श्रावक धर्म का आचरण करता है। श्रावकाचार से सम्बन्धित ग्रन्थों में उपासक धर्म का प्रतिपादन तीन - प्रकार से किया गया है। 6) बारह व्रतों के आधार पर Gi) ग्यारह प्रतिमाओं के आधार पर (iii) पक्षचर्या अथवा निष्ठा एवं साधन के आधार पर। आचार्य जिनसेन ने महापुराण के 38. 39. 40वें पर्व में श्रावक धर्म का विशद वर्णन किया है। उन्होंने पक्ष, चर्या और साधन रूप से श्रावक धर्म के तीन भेद किए -1 हैं। इस त्रिविध धर्म को धारण करने वाले श्रावक क्रम से पाक्षिक, नैष्ठिक LE और साधक कहे गये हैं। मोक्षशास्त्र में व्रती को परिभाषित करते हए लिखा गया है "निश्शल्यो व्रती" अर्थात् जो शल्य रहित है वह व्रती है। उसके दो भेद बतलाये गये हैं-"आगार्यनगारश्च" (मोक्षशास्त्र7-19) अर्थात् अगारी और अनगार । अगारी वह है जिसके घर है तथा जिसके नहीं है वह अनगार है। अणुव्रतों का धारी अगारी है। आचार्य उमास्वामी जी के उपर्युक्त सूत्रों से स्पष्ट है कि श्रावक भी अनवरत रूप से अपनी साधना में संलग्न रहता है। जिस प्रकार से स्नातकोत्तर कक्षा तक पहुँचने के लिए प्राथमिक, माध्यमिक, स्नातक कक्षा का अध्ययन आवश्यक है उसी प्रकार पूर्ण निवृत्ति के लिए प्रारम्भ से त्याग का बीजारोपण आवश्यक है। श्रावक सांसारिक प्रतिकूलताओं के वातावरण में भी धार्मिक क्रियाओं के प्रति सावधान रहता है और यही गृहस्थ जीवन की साधना उसे पूर्ण वीतरागी बनने में सहायक बनती है। जैनधर्म की श्रावक चर्या का विधान प्रत्येक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। ये उसकी आचारगत विशेषतायें आधुनिक जीवन में नियंत्रक का कार्य कर उच्छंखलता की प्रवृत्तियों से रोकती हैं। आत्मानुशासन की प्रेरणा देकर व्यक्ति के जीवन को मर्यादित बनाती हैं तथा सम्पूर्ण मानव जीवन को समता के सूत्र में बांधने की अद्भुत क्षमता रखती हैं। पर्यावरण प्रदूषण तथा स्वास्थ्य की रक्षा में तो श्रावकाचार का विशेष ही महत्त्व है। पहले जब व्यक्ति संयमित जीवन व्यतीत करते थे. तब वे उतने 1498 प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ PLES 454545454545454545454545
SR No.010579
Book TitlePrashammurti Acharya Shantisagar Chani Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKapurchand Jain
PublisherMahavir Tier Agencies PVT LTD Khatuali
Publication Year1997
Total Pages595
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth
File Size22 MB
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