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________________ 1545454545454545454554655745454545 45 स्वेच्छा से, अन्तःस्फुरणा से गुरू साक्षी में सार्वजनिक रूप से वह उन्हें धारण ' - करता है और जब कभी व्रत भंग होने का अवसर आता है तो वह शुद्ध हृदय 1 से प्रायश्चित्त करता है, आत्मालोचन कर उन परिस्थितियों को दूर करने का । 15 प्रयत्न करता है, जिनके कारणों से व्रत भंग होने का खतरा पैदा हुआ है। - अपने अन्तर में पैठकर वह व्रतों के अतिचारों की आलोचना करता है। स्वतः । - या गुरू से दण्ड लेता है. प्रायश्चित्त करता है और पुनः व्रत धारण कर सजगकता के साथ उनकी पालना के लिए कटिबद्ध होता है। व्रत भंग कर वह उल्लसित नहीं होता, अपने आपको प्रतिष्ठित अनुभव नहीं करता, जैसा कि आज के तथाकथित व्यक्ति कानून भंग कर अपने को सामान्य व्यक्ति से ऊँचा और श्रेष्ठ समझने लगते हैं। पर वह व्रतधारी व्रत भंग कर भीतर ही भीतर दुःखी होता है, पीड़ित होता है, अपने को दोषी समझने लगता है 51 और उस दोष से मुक्त होने के लिये, व्रत की रक्षा के लिये पुनः तैयारी करता 12 है। व्रत भंग न हो, उसकी परिपालना बराबर होती रहे, इसके लिए मन 47 में शुभ भावनाओं का चिन्तन निरन्तर चलता रहना चाहिए। मुझे अपनी आत्मा - जैसी प्रिय है, वैसी ही अन्य जीवों को अपनी आत्मा प्रिय है, ऐसा सोचकर प्राणिमात्र के प्रति मन में मैत्रीभाव का चिन्तन करना चाहिए। दूसरों के गुणों :को देखकर मन में प्रमोद भाव लाना चाहिए। दूसरों को कष्ट में देखकर उसे दूर करने के लिए करुणा लाकर सहयोग करना, सुख-दुःख में, लाभ-हानि में, यश-अपयश में विचलित न होकर समता-संतुलन और माध्यस्थ भाव का चिन्तन करना चाहिए। संसार परिवर्तनशील है। प्रत्येक द्रव्य और पदार्थ र उत्पाद-व्यय और ध्रुव युक्त हैं। पर्याय बदलते रहते हैं पर उसमें जो गुण TE है, वह स्थायी है। इसी प्रकार शरीर के जो संबंध हैं, वे परिवर्तनगामी हैं, पर आत्मा अजर-अमर है। उसके गुणधर्म स्थायी हैं, उनका निरन्तर विकास TE हो, इसका चिन्तन व्यक्ति को अनासक्त, निर्द्वन्द्व और निष्काम बनाता है। - इससे अशुभ से शुभ भावों में, भोग से त्याग में प्रवृत्ति होती है। अणुव्रतों की पुष्टि और रक्षा के लिये गुणव्रतों और शिक्षाव्रतों का TE विधान किया गया है। अहिंसा, सत्य आदि अणुव्रत निरन्तर पुष्ट होते चलें, इसके लिए आवश्यक है कि गमनागमन के लिए क्षेत्र, दिशा आदि की मर्यादा निश्चित की जाए, उपभोग-परिभोग में आने वाली सामग्री निश्चित की जाए, प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ 495 FM 4545454745746747965741551545454575
SR No.010579
Book TitlePrashammurti Acharya Shantisagar Chani Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKapurchand Jain
PublisherMahavir Tier Agencies PVT LTD Khatuali
Publication Year1997
Total Pages595
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth
File Size22 MB
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