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________________ 174745454545454541414145146147145 है, न दया गिनी जाती है, निष्ठा भाग जाती है, विवेक नष्ट हो जाता है अथवा क्या नष्ट नहीं होता अर्थात सब कुछ नष्ट हो जाता है। इसके विपरीत धन का संचय रहने पर दोनों लोकों के योग्य पुरुषार्थ भी प्रार्थना किए बिना स्वयं आ जाता है। अतः धन के लिये यत्न करना चाहिए। इसी अभिप्राय को क्षत्रचूडामणि में व्यक्त किया गया है। पिता के द्वारा कमाया हुआ बहुत सा धन विद्यमान रहे, फिर भी पुरुषार्थी जन के लिए अन्योपार्जित द्रव्य से निर्वाह करने में दीनता प्रिय नहीं लगती। यदि स्व स्वामिक धन आय रहित ना होता हुआ खर्च होता है तो बहुत होता हुआ भी नष्ट हो जाता है; क्योंकि हमेशा भोगा जाने वाला पर्वत भी नष्ट हो जाता है। प्राणियों को निर्धनता से बढ़कर कोई दूसरा हार्दिक दुःखदायक नहीं है। गरीब का प्रशंसनीय गुण प्रकट नहीं रहता। निर्धन के विद्यमान ज्ञान भी शोभायमान नहीं होता। निर्धनता से ठगाया गया दरिद्र पुरुष किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है और चाह के अभिप्राय पूर्वक लक्ष्मीवानों के भी मुख को देखता है। सेना (चम्)-गद्यचिन्तामणि के द्वितीय लम्भ में पदाति, अश्व, हाथी और रथ चार प्रकार की सेना का निर्देश किया गया है। आक्रमण का मुकाबला करने के लिए अथवा आक्रमण करने के लिए सेना का उपयोग किया जाता था। TE सबसे पहले राजा सेनापति को आज्ञा देता था, पश्चात् सेनापति की आज्ञानुसार सेना कार्य करती थी। वादीमसिंह ने सेना के प्रमाण का गद्यचिन्तामणि के दशम लम्भ में एक सुन्दर चित्र खींचा है। गोविन्द महाराज काष्ठाङ्गार के यहाँ ससैन्य जा रहे हैं। उस समय अत्यन्त सफेद वारवाणों से सुशोभित श्रेष्ठ कंचुकी वेत्रलताओं से राजा के उपकरण धारण करने वाले लोगों को प्रेरित कर रहे थे। राजा के अत्यन्त दूरवर्ती स्थान तक यह सामान भेजना है, यह समाचार सुनने के लिए भण्डारियों का समूह एकत्रित होकर शीघ्रता कर रहा था। गुरुजन विनयपूर्वक नमस्कार करते हुए लोगों को आशीर्वाद दे रहे थे। लौटने की आशा से रहित योद्धा गाढ़े हुए धन से युक्त कोने दिखला रहे थे। आगे जाने वाले लोग बड़े पेट वाले दासीपुत्रों को बार-बार बुलाने से खिन्न और पसीना से तर हो रहे थे। भूले हुए आश्चर्यजनक आमषणों को लाने के लिए भेजे हए सेवक अस्पष्ट तथा विरोधी वचन कहा रहे थे। तेजी से जाने वाले सम्बन्धी पीछे देखने के बाद लौटकर पुनः पीछे-पीछे चलने लगते थे। गोणू गिरा देने वाले बैल के द्वारा डरे हुए यात्रियों की भीड़ इकट्ठी हो जाती थी। क्रोधी चाण्डाल मजबूत कुल्हाड़ों से वृक्ष चीरकर रास्ता चौड़ा करते जाते थे। खोदने वाले (खनित्रगण) ते जाते थे। । तात्कालिक कार्य में निपुण बढ़ई नदियों तैरने के लिए नावें तैयार कर देते । प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ 1545454545454545454545454555
SR No.010579
Book TitlePrashammurti Acharya Shantisagar Chani Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKapurchand Jain
PublisherMahavir Tier Agencies PVT LTD Khatuali
Publication Year1997
Total Pages595
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth
File Size22 MB
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