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________________ 154945454545454545454545454545549 LELE LELESLSLSLSLSLSLS574545454545LSLSLSLS! एक बार सम्यक्त्व प्राप्त कर लेने के बाद यह जीव अर्द्ध-पुदगल परावर्तन काल से अधिक संसार-भ्रमण नहीं करता और यदि वेदकसम्यक्त्व कर ले तो उसके सदभाव में छह या सात भव में मुक्त हो जाता है। किन्तु दर्शन मोह का क्षय कर लेने पर वह जीव नियम से अन्य तीन भवों के अंदर ही TE मुक्त हो जाता है। दर्शनमोह का क्षपकजीव नियम से कर्मभूमिज, मनुष्यगति में वर्तमान और शुभलेश्या में विद्यमान सम्यग्दृष्टि होता है। इस जबरदस्त कर्म को क्षय करने के लिए जितने विशुद्ध परिणामों को आवश्यकता होती है. वे तीर्थंकर के समवशरण में या केवली भगवान की गंधकुटी के अथवा श्रुतकेवली के पादमूल के अतिरिक्त कहीं भी प्राप्त नहीं होते। अतः उनका पादमूल आवश्यक है। तीनों करण करता हुआ वह क्षपक मिथ्यात्वकर्म के बाद सम्यग्मिमिथ्यात्त्व का सर्वद्रव्य सम्यक्त्वप्रकृति में संक्रमण कर देता है. तब उसके "प्रस्थापक" संज्ञा होती है और सम्यक्त्वप्रकृति का अंतिम स्थितिकाण्डक समाप्त होने के समय से लेकर जब तक उसकी अन्तर्मुहूर्तप्रमाण गुणश्रेणी गोपुच्छाओं को गलाता है, तब तक उसकी "कृतकृत्यवेदक" संज्ञा होती है, इस काल के भीतर उस जीव का मरण भी हो सकता है और लेश्या परिवर्तन भी। अतः वह मरणकर चारों गतियों में उसका निष्ठापक होता है। प्रथमसमयवर्ती कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टि यदि . मरता है तो नियम से देवों में पैदा होता है। और यदि वह बद्धायुष्क है तो । वह नियम से अन्तर्मुहुर्तकाल तक कृतकृत्यवेदक रहता है क्योंकि इतने काल के बिना उन गतियों में उत्पन्न होने के योग्य लेश्या का परिवर्तन संभव नहीं हैं । वह मरकर नरकों में प्रथम नरक के भीतर ही, भोगभूमि में पुरूषवेदी मनुष्य या तिर्यंचों में या सौधर्मादि कल्पवासी देवों में ही उत्पन्न होकर दर्शनमोह की क्षपणा पूर्ण करता है। इस विषय का समस्त अध्ययन इस अधिकार में किया गया है। कर्मों की सर्वोपशामना या क्षपणा में ही तीनों करण होते हैं क्षयोपशम में केवल दो ही करण होते हैं, तीसरा अनिवृत्तिकरण नहीं होता ऐसा नियम है। अतः संयमासंयम को प्राप्त होने वाले वेदकसम्यग्दृष्टि या वेदकप्रायोग्य-मिथ्यादृष्टि दो करण करके या अनादि-मिथ्यादृष्टि किन्तु द्रव्य-एकदेशव्रती तीनों करण करके ही संयमासंयमलब्धि को प्राप्त होते हैं । 1 और उनका पंचम गुणस्थान होता है। इसका जघन्य काल अन्तर्मुहुर्त और प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ 3944 15199749745454545454545454545454545
SR No.010579
Book TitlePrashammurti Acharya Shantisagar Chani Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKapurchand Jain
PublisherMahavir Tier Agencies PVT LTD Khatuali
Publication Year1997
Total Pages595
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth
File Size22 MB
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