SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 406
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 1959959514545454545454545454545459 प बनाया गया है। इसमें समस्त छन्द तथा अलंकारों के लक्षण हैं, इसमें सूक्ष्म - अर्थ और गूढ़ पदों की रचना है। वर्णन अत्यंत उत्कृष्ट है, समस्त शास्त्र के उत्कृष्ट पदार्थों का साक्षात् कराने वाला है, अन्य काव्यों को तिरस्कृत करता है, श्रवण करने योग्य है, व्युत्पन्न बुद्धि वाले पुरुषों के द्वारा ग्रहण करने के योग्य है, मिथ्या कवियों के गर्व को नष्ट करने वाला है और अत्यंत सुंदर है। इसे सिद्धान्त ग्रन्थों की टीका करने वाले तथा चिरकाल तक शिष्यों का शासन करने वाले भगवान जिनसेन ने कहा है। इसका अवशिष्ट भाग निर्मल बद्धि वाले गणभद्रसरि ने अतिविस्तार के भय से और हीनकाल के अनुरोध से संक्षेप में संग्रहीत किया है। आदिपुराण सुभाषितों का भण्डार है। इस सम्बन्ध में गुणभद्राचार्य ने लिखा है कि जिस प्रकार समुद्र से बहुमूल्य रत्नों की उत्पत्ति होती है, उसी प्रकार इस पुराण से सुभाषित रूपी रत्नों की उत्पत्ति होती है। अन्य ग्रन्थों में जो सुभाषित पद्य बहुत समय तक कठिनाई से भी नहीं मिल सकते थे, + वे इस पुराण में पद-पद पर सुलभ हैं और इच्छानुसार संगृहीत किये जा सकते 1545454545454545454545454545454 जिनसेनाचार्य ने अपनी कृति को पुराण और महाकाव्य दोनों नाम से + कहा है। आचार्य ने पुराण और महाकाव्य दोनों की परिभाषा को परिमार्जित 4 करते हुए लिखा है- जिसमें क्षेत्र, काल, तीर्थ, सत्पुरुष और उनकी चेष्टाओं । का वर्णन हो, वह पुराण है। महाकाव्य की व्याख्या करते हुए कहा है कि 4. जो प्राचीन काल के इतिहास से सम्बन्ध रखने वाला हो, जिसमें तीर्थंकर, चक्रवर्ती आदि महापुरुषों का चरित्र-चित्रण हो तथा जो धर्म, अर्थ और काम के फल को दिखाने वाला हो, उसे महाकाव्य कहते हैं। इस प्रकार परिमार्जित परिभाषा के द्वारा पुराण और महाकाव्य के बीच समन्वय स्थापित किया गया आदिपुराण के विस्तृत कलेवर में हम पुराण, महाकाव्य, धर्मकथा, LE धर्मशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, आचारशास्त्र और युग की आदि व्यवस्था को सूचित करने वाले एक वृहत् इतिहास का दर्शन करते हैं। आचार्य ने स्वयं आदिपुराण को धर्मानुबन्धिनी कथा कहा है और बड़ी दृढ़ता के साथ प्रकट किया है कि जो पुरुष यश रूपी धन का संचय और पुण्यरूपी पण्य का व्यवहार करना चाहते हैं. उनके लिये धर्मकथा का निरूपण करने वाला यह काव्य मूलधन के समान माना गया है।5 - प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ 358
SR No.010579
Book TitlePrashammurti Acharya Shantisagar Chani Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKapurchand Jain
PublisherMahavir Tier Agencies PVT LTD Khatuali
Publication Year1997
Total Pages595
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy