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________________ 45454545454545454545454545454545 'पाठशोधन के लिये भी इस ग्रन्थ का महत्त्व कम नहीं है। शृंगार रस से ओत-प्रोत मेघदूत को शान्तरस में परिवर्तित कर दिया गया है। साहित्यिक दृष्टि से यह काव्य बहुत ही सुन्दर और काव्यगणों से मण्डित है। इसमें चार सर्ग हैं। प्रथम सर्ग में 118 पद्य, द्वितीय सर्ग में 118 पद्य, तृतीय सर्ग में 57 पद्य और चतुर्थ सर्ग में 71 पद्य हैं। कविता अत्यंत प्रौढ़ और चमत्कारपूर्ण है। श्री पार्श्वनाथ भगवान दीक्षाकल्याणक के बाद प्रतिमायोग धारणकर विराजमान हैं। वहाँ से उनके पूर्वभव का विरोधी कमठ का जीव संवर नामक ज्योतिष्क देव निकलता है और अवधिज्ञान से उन्हें अपना शत्रु समझकर नाना कष्ट देने लगता है। बस इसी कथा को लेकर पार्वाभ्युदय की रचना हुई है। इसमें संवर देव को यक्ष, ज्योतिर्भव को अलका और यक्ष के वर्षशाप को ' संवर का वर्षशाप माना गया है। समस्यापूर्ति में कवि ने सर्वथा नवीन भाव-योजना की है। मार्गवर्णन और वसुन्धरा की विरहावस्था का चित्रण मेघदूत ।। के समान ही है, परन्तु इसका संदेश मेघदूत से भिन्न है। संवर, पार्श्वनाथ : के धैर्य, सौजन्य, सहिष्णुता और अपारशक्ति से प्रभावित होकर स्वयं वैरभाव : को त्यागकर उनकी शरण में पहुँचता है और पश्चाताप करता हुआ अपने अपराध की क्षमायाचना करता है। कवि ने काव्य के बीच में पायापाये प्रथममुदितं कारणं भक्तिरेव' जैसी सूक्तियों की भी सुन्दर योजना है। इस 1 काव्य में कुल 364 मन्दाक्रान्ता छन्दोबद्ध पद्य हैं। मेघदूत का कथानक दूसरा और पार्वाभ्युदय का कथानक दूसरा है, L फिर भी उन्हीं शब्दों के द्वारा विभिन्न कथानक को निरूपित करना, यह कवि 11 का महान् कौशल है, कवि चातुरी का ही प्रभाव है। समस्यापूर्ति में कवि को बहुत ही परतंत्र रहना पड़ता है और उस परतंत्रता के कारण संदर्भ-रचना में अवश्य ही नीरसता आ जाने का अवकाश रहता है। किन्त प्रसन्नता की बात है कि इस काव्य-ग्रन्थ पाश्र्वाभ्युदय में कहीं भी नीरसता नहीं आने पाई है। इस काव्य की रचना श्रीजिनसेन स्वामी ने अपने सधर्मा विनयसेना की प्रेरणा से की थी और यह उनकी प्रथम रचना प्रतीत होती है। पार्वाभ्युदय की प्रशंसा में श्रीयोगिराट् पण्डिताचार्य ने लिखा है कि श्रीपार्श्वनाथ से बढ़कर कोई साधु, कमठ से बढ़कर कोई दुष्ट और पार्वाभ्युदय से बढ़कर कोई काव्य नहीं दिखाई देता है प्रो0 के0 वी0 पाठक के अनुसार-जिनसेन अमोघवर्ष (प्रथम) के राज्यकाल में हुए, जैसा कि उन्होंने प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ 356 595959
SR No.010579
Book TitlePrashammurti Acharya Shantisagar Chani Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKapurchand Jain
PublisherMahavir Tier Agencies PVT LTD Khatuali
Publication Year1997
Total Pages595
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth
File Size22 MB
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