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________________ 555555555555555555555 51 रागादि परिणाम का अभिन्न तन्मय रूप से कर्ता है। उपरोक्त गाथा नं 9 में दी यही दर्शाया है। अशभोपयोग-कषाय की तीव्रता विषय-भोगादि संक्लेश परिणाम को अशुभोपयोग कहते हैं। अकल्याणकर एवं अप्रशस्त होने से ही इसका नाम अशुभ है। हिंसादि पाँच पापों का भाव, आर्तरौद्रध्यान, सप्तव्यसन-सेवन परिणाम, धर्मायतनों की निन्दा, इन्द्रिय विषयों में लम्पटता इसमें गर्मित है। इस परिणाम से पाप प्रकृतियों का बन्ध होता है। पूर्व में सत्ता में विद्यमान पुण्य कर्म संक्रमित होकर पाप के रूप में परिणत हो सकता है। पुण्य कर्म - के स्थिति-अनुभाग घट सकते हैं। पाप प्रकृतियों में स्थिति बढ़ती है। तथा अनुभाग दृष्टान्तानुसार निम्ब से कांजीर, विष, हलाहल हो सकता है। अतः सदैव पाप-परिणाम से मन-वचन-काय को बचाना चाहिए। कहा भी है असुहोदयेण आदा कुणरोतिरियोभवीय रइयो। दुक्खसहस्सेण सदा अभिंदुदो भमदि अच्चंतं ।।12।। ___ अशुभ के उदय से आत्मा कुमनुष्य, तिर्यञ्च एवं नारकी होकर सहस्रों 卐 दुःखों से अत्यन्त पीड़ित होता हुआ संसार में सदा भ्रमण करता है। यहाँ TE सदा शब्द से ज्ञात होता है कि अशुभ में तो मोक्ष हेतु अवकाश ही नहीं है। - इसीलिए अशुभोपयोग को निर्विवाद रूप से अधर्म अर्थात् हेय कहा गया है। शुभोपयोग-शुद्ध अर्थात् मन्दकषाय भाव को शुभोपयोग कहते हैं। पुण्य भाव-प्रशस्त परिणाम, धर्मरुचि, प्रशम. संवेग, अनुकम्पारूप उपयोग एवं TE - प्रशस्त राग एकार्थवाची हैं। इससे अशुभ का संवर एवं निर्जरा होती है। पाप । प्रकृतियों का संक्रमण पुण्य में होता है। पाप की स्थिति व अनुभाग घटते हैं। पुण्य प्रकृतियों का अनुभाग बढ़ता है। अनुभाग दृष्टान्तानुसार गुड़ से - खांड, शर्करा व अमृत रूप होकर वृद्धिंगत होता है। इसमें देव-शास्त्र-गुरु 4 का श्रद्धान, अहिंसा धर्म, जीवादि तत्त्वों का श्रद्धान एवं अणुव्रत, महाव्रत आदि TH चारित्र रूप व्यवहार मोक्ष मार्ग गर्भित है। पुण्य की व्युत्पत्ति देखिये, “पुनाति आत्मानं पूयते अनेन वा इति पुण्यं।" जो आत्मा को पवित्र करता है वह पुण्य LEहै। यद्यपि इससे कर्म का आस्रव होता है किन्तु वह शुभ होने के कारण 4 - हानिकारक नहीं है, क्योंकि इससे व्यवहार रूप धर्म का प्रारम्भ होता है। पुण्य - 1 को संसार का कारण कहा है वह मिथ्यादृष्टि की अपेक्षा से है क्योंकि आगम । | प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ 344 5464747574575745745414757575155
SR No.010579
Book TitlePrashammurti Acharya Shantisagar Chani Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKapurchand Jain
PublisherMahavir Tier Agencies PVT LTD Khatuali
Publication Year1997
Total Pages595
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth
File Size22 MB
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