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________________ वा 45454545454545454545454545454545 11 जहरीले पंजों को शरीर सहन नहीं कर सकता लेकिन क्षुल्लक गुणसागर LE जी ने अपनी दृढ़ साधना से सब पर विजय प्राप्त कर ली। सर्प की एक और घटना मुंगावली में हुई। सन् 1984 में आप वहाँ थे। आहार लेने के पश्चात् आप प्रायः जंगल में जाकर सामायिक करते थे। एक दिन जब ध्यानमग्न थे तो सर्प आया और दुपट्टे पर खेलता रहा फिर कुण्डली मारकर बैठ गया। फन फैलाकर आपको निहारने लगा और आपको 47 ऐसा लगा जैसे कुछ हुआ ही नहीं। क्षुल्लक अवस्था से ही आपको जंगल में जाकर ध्यान करने की आदत : है। इसी स्वभाव के कारण आप जनसंकुल शहरों की अपेक्षा गाँवों में विहार ' करना अधिक पसन्द करते हैं। चंदेरी की घटना है, वहाँ से 2 कि.मी. दूर खन्दारजी अतिशय क्षेत्र है जहाँ चारों ओर घना जंगल है। आप वहीं पर ध्यानमग्न थे, आपके पास वहाँ का माली आया और सिंह की चर्चा करने लगा। इतने में ही थोड़ी देर में सिंह आ गया और दहाड़कर चला गया। सब लोग डरे हुए थे लेकिन आपको ऐसा लगा कि जैसे कुछ हुआ ही नहीं। कठोर तपश्चरण निर्दोष चर्या, निर्भीकता एवं सहज साधु-स्वभाव को प्रकट करती है। ये कुछ घटनाएँ हैं। सत्य यह है कि आप सच्चे आत्मजयी, TE उपसर्ग-विजयी. ज्ञानाध्ययन एवं साधु है चारित्रिक शिथिलता आपको सहन TE नहीं। न गर्मी की भीषणता से घबराते हैं, और न भयंकर सर्दी की कंपकंपाहट आपको भयभीत कर सकती है। सभी ऋतुओं में आपका समान जीवन रहता है। शीत लहर में भी न घास, न फूस, मात्र एक चटाई रखते हैं। बस प्रतिपल मन्द-मन्द मुस्कुराहट, मूलाचार में वर्णित साधु के आचार के जीवन्त प्रतीक ऐसे साधु अपनी साधना से ही सबके आराध्य हो जाते हैं, अभिभूत हो सभी चरणों में झुक जाते हैं। अपनी वृत्ति के प्रति जागरूकता, नियन्त्रण एवं सावधानी आपकी विशिष्टता है। साधना के पथ पर प्रतिपल चलने वाले भला लक्ष्य तक पहुंचे बिना कभी रुकते हैं। क्षुल्लक अवस्था में 12 वर्ष व्यतीत होने पर आचार्य विद्यासागर जी ने कहा "गुणसागर तू कब तक इस चद्दर से मोह करता रहेगा।" इतना गुरु का संकेत था कि नंगानंग कुमारों की तपस्थली, अनेकानेक मुनियों की साधनास्थली, तीर्थकरों के समवशरण से पवित्र धरा सोनागिरि ही में मुनिदीक्षा 1 का संकल्प ले लिया और अब आप क्षुल्लक गुणसागर से मुनि 108 ज्ञानसागर । 327 प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ
SR No.010579
Book TitlePrashammurti Acharya Shantisagar Chani Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKapurchand Jain
PublisherMahavir Tier Agencies PVT LTD Khatuali
Publication Year1997
Total Pages595
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth
File Size22 MB
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