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________________ 5555555555555555 !!!!!!! समय मुझे ऐसा लगा कि आचार्य श्री से मेरा बहुत पुराना परिचय हो थोड़ी देर बाद ही सब लोग आ गए, तब आचार्य श्री भी नीचे उतर आये और उनके भी पीछे-पीछे उतर गया। सेठ साहब धोती-दुपट्टा पहने हुये थे और आपके हाथ में मोती या मूंगा की जाप जपने की माला थी, मैं भी वहां ही बैठ गया। पं. जी ने शास्त्र स्वाध्याय के दौरान में निश्चय, व्यवहार की बहुत ही सुन्दर व्याख्या की। आपने कहा कि अनादि काल का यह जीव विषय- कषायों से मलीन हो रहा है, सो व्यवहार साधन के बिना उज्ज्वल नहीं हो सकता। जब जीव मिथ्यात्व, अव्रत और कषायादिक की क्षीणता होने पर देव, गुरु, धर्म की यथार्थ श्रद्धा करें और उसके तत्वों की जानकारी हो और क्रिया मिट जाय, तब वह जीव निश्चय रत्नत्रय का अधिकारी उसकी अशुभ हो सकता है। क्योंकि व्यवहार के बिना निश्चय की प्राप्ति नहीं होती। यह बात मुझे आज तक अच्छी तरह याद है। स्वाध्याय समाप्त होने के बाद जब सब लोग चले गये, बाद में आचार्य श्री दर्शन करके आहार को निकल पड़े, सो उनको इन्द्रभवन में ही पड़गाह लिया। मैं आचार्य श्री पीछे-पीछे चला गया, और आहार देखता रहा। जब आहार हो चुका, तब मैंने कहा- महाराज मैं इन्द्रभवन देखना चाहता हूँ। तब महाराज ने कर्मचारी से कहा-इनको इन्द्रभवन दिखा दो, मुझसे कहा कि हम जब तक यहीं बैठे हैं। कर्मचारी मुझे अंदर ले गया और सेठ साहब का जो खास कमरा था, वह मुझको दिखा दिया। जिसमें पूरे कमरे में सोने ही सोने का काम था, कमरे के बीच में स्वर्ण का बना हुआ झूला कुर्सीनुमा टंगा हुआ था। पुण्य की महिमा देखकर दान करने का फल साक्षात् दिखाई दे रहा था। जो जैसा करता है, वह वैसा ही फल पाता है। जब मैं वापिस आया तो तब तक आचार्य श्री वहां से वापिस हो गये थे, मैं आचार्यश्री को परोक्ष नमस्कार करके अपने गन्तव्य स्थान पर चला आया । मैं पूछते-पूछते उस दलाल के घर पर पहुंच गया, और उसने मेरा उसी समय सारा काम करा दिया, मुझे वह दिन आज तक याद 1 भगवतीप्रसाद वरैया लश्कर 289 प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति ग्रन्थ फ
SR No.010579
Book TitlePrashammurti Acharya Shantisagar Chani Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKapurchand Jain
PublisherMahavir Tier Agencies PVT LTD Khatuali
Publication Year1997
Total Pages595
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth
File Size22 MB
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