SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 196
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 45454545454545454545454545454555657 प्रभावित हुए कि उन्होंने आचार्यश्री से स्वयं याचना करके सातवी प्रतिमा के व्रत ग्रहण किये। इन सभी त्यागियों-विद्वानों ने स्थान-स्थान पर महाराजश्री की भक्ति और वैय्यावृत्ति की तथा उनके तपश्चरण की सार्वजनिक रूप से सराहना करके पुण्य-लाभ लिया। मुनियों-आचार्यों के पास विद्वान् तो आते हैं, परन्तु यह आचार्यश्री की निरभिमान ज्ञान-पिपासु प्रवृत्ति का ही फल था कि अपने समीप आये हुए प्रायः हरेक विद्वान से उन्होंने कुछ न कुछ लेने का प्रयास किया। इसी का तो यह सुफल था कि एक दिन रत्नकरण्ड-श्रावकाचार पर पण्डित सदासुखजी की वचनिका जिसे दूसरे से पढ़ाकर सुननी पड़ी थी, उसी साधक ने, केवल स्वाध्याय के बल पर, सात साल के अल्पकाल में, सर्वार्थसिद्धि, राजवार्तिक, गोम्मट्टसार, ज्ञानार्णव आदि छोटे-बड़े साठ-सत्तर ग्रन्थों का स्वाध्याय पूर्ण कर लिया। उन्होंने उस युग के पारंगत विद्वानों से महीनों तत्त्व-चर्चा करके उनका मन मोह लिया और शास्त्रीय-समाधान में कुशलता प्राप्त कर ली। - आगमानुसारी आचरण इन तथ्यों से एक बात और प्रगट होती है कि ऐसे सूक्ष्मदर्शी और परीक्षा-प्रधानी विद्वान् दौड़-दौड़ कर जिसके पास आते रहे, जिसके साथ चर्चा करके गौरवान्वित होते रहे, उस साधक के पास अपनी भी अवश्य कोई 1 निधि रही होगी। निश्चय ही आचार्य शान्तिसागरजी छाणी महाराज की वह IF निधि थी-उनका आगम के अनुकूल आचरण, उनका निरभिमानी व्यक्तित्व, उनकी गुण-ग्राहकता और विद्वानों के प्रति उनका सहज वात्सल्य। उनके पास आने वालों में कई ऐसे स्पष्टवक्ता और तेजस्वी विद्वान भी थे, जो दिगम्बर मुनि की चर्या में किसी भी प्रकार की शिथिलता को कभी नजरअंदाज नहीं कर सकते थे। यदि उन्हें आचार्यश्री में भी आगम-विरुद्ध परिणति दिखाई देती तो वे उनकी खरी आलोचना करते और कभी दबारा उनके दर्शनों के TE लिये नहीं आते थे। अब यह सिद्ध करने के लिये अन्य किसी साक्ष्य की आवश्यकता नहीं जा है कि समय के सर्वोत्तम विद्वानों द्वारा वंदित आचार्य छाणीजी महाराज पूर्णतः TE आगमोक्त चर्या में प्रवर्तन करने वाले, अत्यंत मंद-कषाय वाले, उत्कृष्ट साधक थे। पिच्छी की मर्यादा का उन | ज्ञान और ध्यान था। उस मर्यादा प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ 51 4144 45454545454545454545454545454545
SR No.010579
Book TitlePrashammurti Acharya Shantisagar Chani Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKapurchand Jain
PublisherMahavir Tier Agencies PVT LTD Khatuali
Publication Year1997
Total Pages595
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy