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________________ 15455456457456457454554545454545454545 गता है कि प्रारम्भ में आचार्यश्री ममक्ष-जनों को व्रत और दीक्षा TE आदि देने में कुछ उदार थे। संयोग से उन्हें पात्र भी अच्छे मिलते गये। - परन्तु गिरीडीह के चातुर्मास में ब्र. सुवालालजी जब उनसे मुनिदीक्षा लेकर 51 मुनि ज्ञानसागर बने और शिथिलतावश मुनिपद से भ्रष्ट होकर, वस्त्र धारण TE करके, प्रायश्चित लेने की भावना से मधुबन में पुनः उनकी शरण में आये, तब आचार्यश्री को दीक्षा के पूर्व "पात्र-परीक्षा" के महत्व का भान हआ। ज्ञानसागर को उन्होंने कड़ा दण्ड देकर प्रायश्चित पूर्वक ही संघ में प्रवेश दिया। पहले उन्हें नन्दीश्वर व्रत कराया जिसमें 108 दिन तक "एक पारणा-एक उपवास" करना होता है। इसमें 56 उपवास और 52 पारणा ऐसे कुल 108 दिन की साधना करनी होती है। इसके बाद उन्हें पहले क्षुल्लक बनाया फिर ऐलक बनाकर तब बाद में मुनि-दीक्षा प्रदान की। फिर उसी समय आचार्यश्री ने यह निर्णय कर लिया कि-"अब आगे जिसे दीक्षा दी जायेगी, पहले उसकी अच्छी तरह जाँच कर ली जायेगी। यदि योग्य होगा, मुनिसंघ में रहकर आज्ञा-पालन करेगा और शास्त्र प्रमाण प्रवर्तेगा, तो दीक्षा दी जायेगी। जिसे दीक्षा लेने की इच्छा होगी वह उपरोक्त बातों का पालन करेगा।" यह भी नियम बनाया गया कि-"कोई मनि गुरु - की आज्ञा के बिना संघ छोड़कर एकाकी विहार नहीं करे, तथा अपने दीक्षा गुरु की आज्ञा का निरन्तर पालन करे। आज्ञा का उल्लंघन करने वाले को, 4 और शास्त्र-विरुद्ध आचरण करने वाले को भी दण्ड मिलेगा। जो दण्ड को - नहीं मानेगा उसे संघ से निष्कासित कर दिया जायेगा।" उस समय वे किन्हीं संस्थाओं को दान भेजने का उपदेश करते थे, उसे भी कार्तिक शुक्ला पूनम के पश्चात् श्रीशिखरजी की यात्रा करके त्याग - कर दिया। उन दिनों आगम ग्रन्थों को छापाखाने में छापने का आन्दोलन कुछ लोगों ने प्रारम्भ किया था। अपवित्रता तथा अविनय के डर से यदा-कदा विरोध भी हो रहा था। आचार्यश्री ने अपने आपको इस विवाद से सर्वथा पृथक् रखा और यह निर्णय कर लिया कि-"मुनि अपने हाथ में लेकर छपे - हुए शास्त्रों का स्वाध्याय न करे, किन्तु अवसर पड़ने पर दूसरे के हाथ में लिये ग्रन्थ को वह पढ़ सकेगा।" इस प्रकार हम पाते हैं कि जब भी कोई ऐसा अवसर आया जब आचार्यश्री ने विवाद में पड़ने या किसी एक पक्ष को 4142 प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ - 999999999999999)
SR No.010579
Book TitlePrashammurti Acharya Shantisagar Chani Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKapurchand Jain
PublisherMahavir Tier Agencies PVT LTD Khatuali
Publication Year1997
Total Pages595
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth
File Size22 MB
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