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________________ 154545454545454545454545454545 (शत्रुणा) विपद्ग्रस्तो नाभवत् । र लोकरविः दिनमणिः कथ्यते, शान्तिसूर्यस्तु ज्ञानप्रकाशकत्वात् - नक्तंदिवामणिः प्रसिद्धः। इत्येवं लोकसूर्यापेक्षया शान्तिसूर्यस्य प्रकृष्टमहत्त्वं बभूव। शान्तिसूर्यद्वयेनैष, लोकसूर्यः पराजितः। भुवने लज्जितो भूत्वा, पश्चिमे दिशि निर्गतः ।।5।। पंचचामरवृत्तम् यस्य शिष्य संघवीरमल्लि भिक्षुधीनभिः । ज्ञानसागरश्च पाठको हि सूरिपूजकः । यस्य सत्कृपावशेन जायतेऽभिनन्दनम् भक्तिपुष्पमाल्यकैः प्रशस्तिकं समर्प्यते।।6।। डॉ. दयाचन्द्र साहित्याचार्य प्राचार्य-श्री गणेश दि. जैन. संस्कृत महाविद्यालयः सागर शान्ति सिन्धु जी तुम्हें नमन (1) TE "परम दिगम्बर मुद्रा धारी, शान्ति सिन्धु जी तुम्हें नमन। तारण-तरण जहाज गुरूवर, परम तपस्वी तुम्हें नमन।। धन्य हुई वह पुण्य भूमि जो, 'छाणी' नाम को पाया है। पिता भागचन्द जी मातु माणिक बाई, जग में यश फैलाया है।। बाल्यकाल की लीलाओं से, जिन जग में अचरज डाल दिया। केवलदास की संज्ञा पाकर, केवल निज पाने का यत्न किया। नेमि वैराग्य सुना बहनोई से, वैराग्य बीज तब फूट पड़ा। उसी रात्रि दो स्वप्न देखकर, लिया आदि प्रभु से ब्रह्मचर्य भला ।। FIC देखे जो दो स्वप्न केवल जी, सुनो ध्यान से सभी स्वजन। सम्मेद शैल की करूं वंदना, श्री बाहुबली मंगल अर्चन।। पिता कहें श्री केवलदास से, करो व्याह तुम मेरे लाल। - 47114 प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ 459545454545454545454545454545
SR No.010579
Book TitlePrashammurti Acharya Shantisagar Chani Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKapurchand Jain
PublisherMahavir Tier Agencies PVT LTD Khatuali
Publication Year1997
Total Pages595
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth
File Size22 MB
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