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________________ 4545454545454545454545454545454545 वेश दिगंबर घर, विहार कर जन-जन का मुख मोड़ा। मिथ्यादृष्टि जीवों ने उपसर्ग किए थे भारी।। पर, समता से सहा सभी थी दृढ़ता की बलिहारी। उपदेशों की पावन गंगा बहने लगी धरा पर। जन-जन पल्लवित हुआ तुम्हारे दर्शन से हे ऋषिवर। मरणसमाधि लेकर कीन्हा निज आत्म का उद्धार है। शांति के सागर मुनि तुमको नमन शत्बार है। अहमदाबाद डॉ. शेखरचन्द जैन मैं नमन करूँ अति भावपूर्ण आचार्य शांतिसागर छाणी का नाम सुना है। चलते फिरते वे चैत्यालय थे जन समह का नाद सना है।। समभावी थे वीतराग थे निजस्वरूप के ज्ञाता थे यह गान सुना है। करूँ नमन मैं भावों से उनके गुण पाने भाव बना है। श्री भागचन्द के भाग्योदय से मणिक बाई ने लाल जना था। निर्वाण वीर के दिवस चार थे शेष तभी वह लाल जना था। लालन पालन का मधुर रूप पाकर वह रहा सदा हर्षित था। यौवन पाकर भी वह वीर ना चालित हुआ था।। ब्रह्मचर्य व्रत धार बन वे क्षुल्लक मुनि पद धार। चिन्तन तत्वों का किया जगत का रूप विचार वे सदा रहे निर्मोह बने आचार्य धर्ममय जीवनधारा। गांवों-गांवों में घूम धर्म का चक्र प्रसार। उपदेश तत्व का देते थे वह अति ही प्रभाव होता था। उनका अभाव है फिर भी उनकी स्मृति का वह कारण था। प्रभु करे नमन उनको मन से उनके गुण उतरे जीवन में। उनकी स्मृति ना व्यर्थ बने यदि गुण फैले जन मानस में। - 11110 प्रशममूर्ति आचार्य शान्तिसागर छाणी स्मृति-ग्रन्थ । 551474174175176155555555555657515
SR No.010579
Book TitlePrashammurti Acharya Shantisagar Chani Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKapurchand Jain
PublisherMahavir Tier Agencies PVT LTD Khatuali
Publication Year1997
Total Pages595
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationSmruti_Granth
File Size22 MB
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