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________________ ६४ श्रीचतुर्विशतिजिनस्तुति । ___ अर्थ- हे भगवन् ! महापुण्यके उदयसे आप इस संसारमें कामदेव भी थे, तीर्थंकर भी थे और चक्रवर्ती भी थे। हे प्रभो! आपने एक ही भवमें तीन पद प्राप्त किये थे । इसीलिये आप सबके द्वारा वदनीय और पुण्यकी श्रेष्ठमूर्ति कहलाते हैं । भुक्त्वापि षट्खंडमहीं न तृप्तिः परे पदार्थे न निजात्मवाद्ये । विचार्य चैवं विषमाद्धि भोगा जातो विरक्तो भवरोगवैद्यः ॥४॥ अर्थ- हे देव ! आपने छहो खंड पृथ्वीका उपभोग किया तथापि किसी भी पर पदार्थमें तृप्ति नहीं हुई और न अपने आत्मासे बाह्य अन्य किसी पदार्थमें तृप्ति हुई। इसी बातको विचार कर आप विपम भोगोंसे विरक्त होगये और इमीलिये आप संसाररूपी रोगके श्रेष्ठ वैद्य कहलाते हैं । षट्खण्डभूमि तृणवद्विहाय ___ ध्यानामिना कर्मरिपूंश्च दग्ध्वा । श्रीमोक्षलक्ष्म्याश्च पतिः प्रियश्च त्राता च जातो भवरोगहर्ता ॥५॥ अर्थ- हे नाथ ! अपने इम भरत क्षेत्रकी छहो खंड भूमि तृणके समान छोड दी थी और फिर ध्यानरूपी अग्निसे कर्मरूपी समस्त शत्रुओंको जला दिया था । हे प्रभो ! इसीलिये अनेक प्रकारकी लक्ष्मीसे सुशोभित ऐमी मोक्ष लक्ष्मीके पति
SR No.010578
Book TitleChaturvinshati Jin Stuti Shantisagar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherRavjibhai Kevalchand Sheth
Publication Year1936
Total Pages188
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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