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________________ श्रीचतुर्विंशतिजिनस्तुति । ___अर्थ- चन्दनके लेप करनेसे और पुष्प मालाके धारण करनेसे लोग क्षणमात्रके लिये तृप्त होते हैं परतु आपकी शीतल और मिष्ट वाणीको सुनकर लोग सदाके लिये अपने शुद्ध आत्माके रसमें सतुष्ट हो जाते हैं। त्वद्वाविरुद्धेऽध्वनि ये व्रजन्ति दीनादरिद्राश्च सदा भवन्ति । पुनःपुनस्ते विषमे भवाब्धौ पतन्ति मूर्खाच चिरं भ्रमन्ति ॥४॥ अर्थ- हे प्रभो ! जो जीव आपके वचनोके विरुद्ध मार्गमें चलते हैं, वे सदा दीन दरिद्री ही रहते हैं, वे मूर्ख जीव वार वार संसाररूपी विषम समुद्र में पड़ते हैं और वहांपर चिरकाल तक परिभ्रमण करते रहते हैं। स्थातुं शरीरे विषयांश्च भोक्तुं ___कुर्वन्त्यकार्य निजबोधहीनाः । दुःखं सहन्ते वधबंधनोत्थं भोगस्य हेतोः करिणो यथा वा ॥५॥ अर्थ- हे नाथ ! जो जीव अपने आत्मवोधसे रहित हैं वे शरीग्में रहनेके लिये और इन्द्रियोके विषयोंका भोग करनेके लिये बहुतसे निंद्य कार्य वा न करने योग्य कार्य कर डालते हैं तथा जिसप्रकार हाथी भोगोंके सेवन करनेके लिये
SR No.010578
Book TitleChaturvinshati Jin Stuti Shantisagar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherRavjibhai Kevalchand Sheth
Publication Year1936
Total Pages188
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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