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________________ श्रीपुष्पदंतजिनस्तुति। अर्थ- हे भगवन् ! इस संसारमें आप ही परम देव हैं, आप ही तीनों लोकोंके इन्द्रोंके द्वारा पूज्य हैं, आप ही दोष रहित सर्वज्ञ देवोंमें मुख्य हैं, आप ही हितोपदेशी हैं, आप ही संसारके संतापको दूर करनेवाले हैं, आप ही तीनों लोकोंका हित करनेवाले हैं और इसीलिये आप सब जीवोंके द्वारा वंदना करने योग्य है। ये केपि भव्या मनसा पठन्ति त्वद्धर्मतत्वं भवनाशनाय । ते त्वत्समानाश्च भवन्ति शीघ्र कार्या न शंकात्र कदापि स्वप्ने ॥६॥ अर्थ- हे भगवन् ! आपके कहे हुए धर्मतत्वको जो कोई भव्य जीव अपने जन्ममरणरूप संसारको नाश करनेके लिये मनसे पढते हैं वे जीव बहुत ही शीघ्र आपके समान हो जाते हैं । इसमें स्वप्नमें भी कभी शंका नहीं करनी चाहिये। त्वद्धर्मसूर्यपि सुमार्गदूरा मोहोदयाचे भुवि दृष्टीहीनाः । इच्छन्त्यवश्यं पतितुं भवाब्धै ते कौशिका वा नरदेहरूपाः ॥७॥ अर्थ- हे भगवन् ! आपके कहे हुए धर्मरूपी सूर्यके उदय होते हुए भी जो मोक्षके श्रेष्ठ मार्गसे दूर हैं और मोहनीय कर्मके उदयसे जो दृष्टिहीन है, सम्यग्दर्शनसे रहित हैं और
SR No.010578
Book TitleChaturvinshati Jin Stuti Shantisagar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherRavjibhai Kevalchand Sheth
Publication Year1936
Total Pages188
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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