SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 52
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रीपुष्पदंतजिनस्तुति । ३५ श्रीपुष्पदंतजिनस्तुति। धर्मवत्याश्च रामायाः सुग्रीवस्य क्षमावतः । पुष्पदन्तो जगद्वंधुश्चासीदःखविनाशकः॥१॥ अर्थ- समस्त दुःखोंको नाश करनेवाले और जगतमात्रके बंधु भगवान् पुष्पदन्त श्रेष्ठ धर्मको धारण करनेवाली महारानी रामा और अत्यंत क्षमावान् महाराज सुग्रीवके पुत्र थे। स्थितोस्मि यस्मिन् हि पदे प्रमोहाद् । भव्यश्च निंद्यं विपदास्पदं तत् । विचार्य चैवं सुविधिश्च जातो निजात्मबाह्यानिलयाद्विरक्तः ॥२॥ अर्थ- भगवान पुष्पदन्तने विचार किया कि मैं अपने मोहनीय कर्मके उदयसे जिस गृहस्थपदमें रह रहा हू वह पद भव्य जीवोंके द्वारा निंदनीय हैं और अनेक आपत्तियोंका स्थान है यही समझकर वे भगवान् पुष्पदन्त अपमे आत्मासे बाह्य ऐसे गृहस्थपदसे विरक्त होगये थे। कर्मारिदुर्ग समशान्तवज्रः क्षमातपोध्यानगुणैः सुयोधैः । विभेद्य लीनः स्वपदे च तुष्टो जातो हि वंद्यो मुनिभिः स देवः ॥३॥
SR No.010578
Book TitleChaturvinshati Jin Stuti Shantisagar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherRavjibhai Kevalchand Sheth
Publication Year1936
Total Pages188
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy