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________________ श्रीशान्तिसागरचस्त्रि। ३७ प्रभाते दीक्षितास्तत्र शान्तिसागरयोगिना। तेषां नामानि वर्ण्यन्ते दीक्षितानां यथाक्रमम् ॥५० अर्थ- आचार्य महाराजने उस शुभ क्षेत्रकी वंदना की और समस्त जिनालयोंकी वंदना की। फिर बीरनिर्वाण सम्बत्तू चौबीससौ छप्पनके मगसिरके शुभ महीनेमें पौर्णमालीके शुभ दिन प्रातःकाल के समय आचार्य शांतिसागरने चार एल्लकोंको श्रीजैनेश्वरी दीक्षा दी। आगे उन दीक्षित हुए मुनियोंके यथा क्रमसे नाम कहते हैं। चन्द्रसागरयोगीन्द्रः धर्ममूर्तिः प्रभाववान् । विचक्षणो दयामूर्ति मुनिः श्रीपार्श्वसागरः॥५१॥ चतुर्विंशतिपूज्यानां स्तुतिकर्ता प्रसन्नधीः । कर्ताहमस्य वृत्तस्य तृतीयः कुंथुसागरः ॥५२॥ ध्यानोपवासदक्षश्च तपस्वी नमिसागरः।। चत्वारो मुनयश्चैते दीक्षिता तत्र सूरिणा॥५३॥ ___ अर्थ- धर्ममूर्ति और प्रभावशाली योगिराज चंद्रसागर दीक्षित हुए, दयाकी मूर्ति और सबसे विचक्षण श्रीपार्श्वसागर मुनि दीक्षित हुए। चतुर्विंशति तीर्थकरोंकी स्तुति की रचना करनेवाला प्रसन्न चिसको धारण करनेवाला और इस चरित्रको बनानेवाला तीसरा मैं कुंथुसागर हूं। तथा ध्यान उपवासमें अत्यंत चतुर ऐसे नमिसागर चौथे मुनि दीक्षित हुए हैं। इस • प्रकार उस सोनागिर पर्वतपर आचार्य महाराजने चार एल्लकोंको
SR No.010578
Book TitleChaturvinshati Jin Stuti Shantisagar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherRavjibhai Kevalchand Sheth
Publication Year1936
Total Pages188
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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