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________________ श्रीमहावीरस्तुति । ९९ अर्थ- सुख चाहनेवाले भव्यजीवोंको अपने प्राण जानेपर भी अथवा चाहे जैसा कष्ट होनेपर भी ऊपर कहे हुए कुदेव कुशास्त्र और कुगुरुमें देव, शास्त्र, गुरु समझकर कभी श्रद्धान नहीं करना चाहिये, कभी भक्ति नहीं करनी चाहिये और उनमें कभी भी अपनी प्रवृत्ति नहीं करनी चाहिये । त्वयोक्तमेनं वचनं न मत्त्वा, कुर्वन्ति भक्तिं त्रिषु ये च मूर्खाः । पापाश्च दीना निजरत्नहीना निजात्मशून्याश्च भवन्ति निंद्याः ॥ १३ ॥ अर्थ- हे भगवन् ! जो मूर्ख आपके कहे हुए इन वचaist नहीं मानते और ऊपर लिखे हुए कुदेव, कुशास्त्र और कुगुरु इन तीनोंकी भक्ति करते हैं, वे मूर्ख हैं, पापी हैं, दोन हैं, अपने रत्नत्रयसे रहित हैं, आत्मज्ञानसे शून्य हैं और निंदनीय हैं । नश्यन्ति ये केपि सदैव लोके ते पापिनः क्रोधचतुष्टयाद्धि । श्रीमोक्षलक्ष्म्याः स्वसुखप्रदायाः हानिर्भवेच्छान्तिनिधेश्च तस्मात् ||१४|| अर्थ - इस संसार में जो पापी जीव सदा नष्ट होते रहते हैं, वे इस क्रोध, मान, माया, लोभ इन चारों कपायोंसे ही नष्ट होते हैं । तथा इन्हीं क्रोध, मान, माया, लोभसे शान्तिकी
SR No.010578
Book TitleChaturvinshati Jin Stuti Shantisagar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherRavjibhai Kevalchand Sheth
Publication Year1936
Total Pages188
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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