SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 110
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रीपार्श्वनाथस्तुति। तथापि चात्मोत्यरसप्रभावात् न योगतः शान्तिमताश्चचाल । कल्पान्तवातेन यथा सुमेरुः श्रीपार्श्वनाथो भगवान् स्वयंभूः ॥७॥ अर्थ- दुष्ट कमठके जीव असुरदेवने पहले जन्मके वैरके कारण मुनिगज भगवान पार्श्वनाथके मस्तकपर भयंकर गर्म गर्म धूलि फेंकी थी और भयंकर मेघकी वर्षा की थी। तथापि आत्मासे उत्पन्न हुए रसके प्रभावसे अत्यंत शांत मनको धारण करनेवाले वे भगवान स्वयंभू पार्श्वनाथ स्वामी अपने ध्यानसे रचमात्र भी चलायमान नहीं हुए थे और कल्पकालके अंत समयमें चलनेवाली महावायुसे भी मेरुपर्वत जिसप्रकार चलायमान नहीं होता उसीप्रकार वे भगवान् उस महा उपसर्गमें भी अचल बने रहे थे। संपूर्ण कर्माणि निहत्य जातो नरामरेन्द्रहदि चिन्तनीयः । कृपानिधे सौख्यनिधे दयाब्धे मां पाहि शीघ्रं भवभंगजालात् ॥८॥ अर्थ-~- हे भगवन् ! आप समस्त कर्माको नाश कर इन्द्र चक्रवर्ती आदि महापुरुषोंके द्वारा भी हृदयमें चितवन करने योग्य होगये हैं, हे कृपानिधि, हे सुखके निधि और हे दयाके समुद्र इस संसारकी लहरोंके जालसे आप मेरी शीघ्र ही रक्षा कीजिये।
SR No.010578
Book TitleChaturvinshati Jin Stuti Shantisagar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherRavjibhai Kevalchand Sheth
Publication Year1936
Total Pages188
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy