SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 105
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८८ श्रीचतुर्विंशतिजिनस्तुति। अर्थ- हे भगवन् नेमिनाथ स्वामिन् ! आप हरिवंशमें सूर्य हैं, आपने विवाह के समय मार्गमें ही भील आदिके द्वारा होनेवाली पशुओंकी बाधाको देखकर संसार और भोगोंसे उदास होकर वैराग्य धारण कर लिया था। राजीमती तामपि राज्यलक्ष्मी निजात्मसिध्यै तृणवद्विहाय । कारिजालं प्रविभेदनार्थ गतश्च धीरो गिरनारशैलम् ॥४॥ अर्थ- हे प्रभो ! धीरवीर ! आपने अपने शुद्ध आत्माकी प्राप्तिके लिये राजीमतीको और उस राज्यलक्ष्मीको तृणके समान छोड दिया था और फिर कर्मरूपी शत्रुओंके जालको तोडनेके लिये आप गिरनार पर्वतपर चढ गये थे। घोरातिघोरं परमं विशुद्ध मिच्छानिरोधं सुतपश्च कुर्वन् । स्थितः स धोरो निजचित्स्वभावे ___ यथा सुमेरुः खलु मध्यलोके ॥५॥ अर्थ- हे भगवन् ! जिसप्रकार मध्यलोकमें मेरुपर्वत अचल होकर विराजमान है, उसीप्रकार सर्वोकृष्ट, विशुद्ध और कठिनसे कठिन इच्छा निरोधरूप तपश्चरणको करते हुए धीर वीर आप अपने आत्मस्वभावमें अचल होकर विराजमान होरहे थे।
SR No.010578
Book TitleChaturvinshati Jin Stuti Shantisagar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLalaram Shastri
PublisherRavjibhai Kevalchand Sheth
Publication Year1936
Total Pages188
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy