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________________ * RR * vuvuvvvvvvvvvvvvvvvvvv vvvvvvvvvvvvvvvvvvvvums R RRR-54- . वृहज्जैनवाणीसंग्रह ५५-श्रीमहावीर-प्रार्थना । हे सर्वज्ञ वीर जिनदेवा, चरन शरन हम आते हैं। जान * अनंतगुणाकर तुमको चरनन सीस नवाते हैं ।। १ ॥ कथन । तुम्हारा सबको प्यारा कहीं विरोध नहीं पाता । अनुभव* बोध अधिक जिनके है, उन पुरुषोंके मन भाता ॥ २ ॥ के दर्शन ज्ञान चरित्रस्वरूपी, मारग तुमने दिखलाया । यही मार्ग हितकारी सबका, पूर्व ऋषीगणने गाया ॥ ३ ॥ रत्नत्रयको भूल न जावै, इसीलिये उपनयन करें । ब्रह्मचर्यको दृढतम पालै, सप्तव्यसनका त्याग करें ॥४॥ नीतिमार्ग-1 * पर नित्य चलै हम, योग्याहार विहार करें । पालें योग्या* चार सदा हम, वर्णाचार विचार करें ॥५॥ धर्ममार्ग, • अरु वैधमार्ग से, देशोद्धार विचार करें। आपवचन हम , दृढतम पालें, सत्सिद्धांत प्रचार करें ॥६॥ श्रीजिनधर्म बढे । दिनदूनो पंच आप्तनुति नित्य करै । सत्संगति को पाकर। * खामिन्, कर्म कलंक समूल हरै ॥ ७॥ फलैं भाव ये सभी हमारे, यही निवेदन करते हैं। 'लाल' बाल मिलि भाल । वीर के, चरणों में शिर धरते हैं ॥ ८ ॥ ५६-आचार्यय रविषेणस्तति। रविसे रविसेन अचारज हैं, भविवारिजके विकसावनहारे। जिन । पद्मपुराण बखान किया, भवसागरते जगजंतु उधारे॥सिय * रामकथा सु जथारथ भाखि, मिथ्यातसमूह समस्त विदारे। * भवि'वृंद'विथा अब क्यों नहरी, गुरुदेव तुम्ही ममप्राण अधारे।
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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