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________________ rearr ..... ....... PALAAAAAAAAAAAAAAAAAArrrn. - वृहज्जैनवाणीसग्रह ये वजत विजयनिशाल दुन्दुभि, जीत सूचै प्रभुतनी।। सो जयो० ॥७॥ छदमस्थपदमें प्रथम दर्शन, ज्ञानचारित है आदरे । अब तीन तेई छत्रछलसों, करत छाया छवि भरे॥ । अति धवल रूप अनूप उन्नत, सोमविवप्रभा हनी। सोजयो । *॥८॥ दुति देखि जाकी चंद सरमै, तेजसों रवि लाजई।। तब प्रभामंडलजोग जगमें, कौन उपमा छाजई॥ इत्यादि । अतुल विभूति मंडित, सोहिये त्रिभुवनधनी । सो जयो । ॥९॥यौं असम महिमा सिंधु साहब, शक्र पार न पावहीं । ताही समय तुम दास 'भूधर' भगतिवश यश गावहीं ॥1 * अब होउ भवभव स्वामि मेरे, मैं सदा सेवक रहौं । कर जोरि यह वरदान मागौं, मोखपद' जावत लहौं । ४६-भूधरकृत पार्श्वनाथस्तुति। दोहा-कर जिनपूजा अष्टविधि, भावभक्ति जिन भाय। ॐ अव सुरेश परमेश थुति, करौं शीश निज नाय ॥ प्रभु इस जग समरथ ना कोय । जासों तुम यश वर्णन । होय ।। चार ज्ञानधारी मुनि थकैं। हमसे मंद कहा कहि । सकें ॥१॥ यह उर जानत निश्चय कीन । जिनमहिमा । वर्णन हम-हीन ॥ पर तुम भक्तिथकी बाचाल। तिस वश * हो, गाऊँ गुणमाल ॥ २॥ जय तीर्थकर त्रिभुवनधनी।। जय चंद्रोपम चूड़ामनी ॥ जय जय परम धरमदातार। कर्मकुलाचल-चूरनहार ॥३॥ जय शिवकामिनिकंत महंत ।। *K KAK--- -*
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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