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________________ NAAMAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAAR बृहज्जैनवाणीसंग्रह * तुम मोह जीत अजीत इच्छातीत शर्मामृत भरे। रजनाश । तुम वर भासदृग नभ ज्ञेय सब इक उडुचरे ॥ स्टरास क्षति । * अति अमितिवीर्य सुभाव अटल संरूप हो । 'सबरहित दूषण । त्रिजगभूषण अज अमल चिद्रूप हो ॥१॥ इच्छा विना भवि। भाग्यते तुम, ध्वनि सु होय 'निरक्षरी । पटद्रव्यगुणपर्यय । अखिलयुत, एकछिनमें उच्चरी । एकांतवादी कुमत पक्ष विलिप्त इम ध्वनि मद हरी । संशय तिमिरहर रविकला। * भविशस्यकों अमिरत झरी ॥२॥ वस्त्राभरण विन शांतिमुद्रा | सकल सुरनरमन हरै । नाशाग्रदृष्टि विकारवर्जित निरखि ! छवि संकट टरै ॥ तुम चरणपंकज नखप्रभा नभ कोटिसूर्य । प्रभा धेरै । देवेंद्र नाग नरेंद्र नमत सु, मुकुटमणिद्युति विस्तरै । ॥३॥ अंतर बहिर इत्यादि लक्ष्मी, तुम असाधारण लसै ।। * तुम जाप पापकलापनास, ध्यावते शिवथल बसै ॥ मै सेय। कुटग कुबोध अव्रत चिर भ्रम्यो भववन सबै । दुख सहे सर्व । प्रकार गिरिसम, सुख न सर्षपसम कवै ॥४॥ परचाहदाह। दह्यो सदा कबहूं न साम्यसुधा चख्यो । अनुभव अपूरव खादुविन नित, विषय रसचारो भख्यो।। अब बसो मोउरमें * सदा प्रभु, तुम चरण सेवक रहों । वर भक्ति अति दृढ होहु । मेरे, अन्य विभव नहीं चहों ॥ ५॥ एकेंद्रियादिक अंतग्रीवक, तक तथा अंतरघनी । पर्याय पाय अनंतवार अपूर्व, सो नहिं शिवधनी । संसृतिभ्रमणतै थकित लखि निज, दा. सकी सुन लीजिये। सम्यकदरश वरज्ञानचारितपथ 'विहारी' कीजिये ॥६॥
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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