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________________ Numerekarwwwwwwwwwwwww बृहज्जैनवाणीसंग्रह मनोरथ पूजौं ॥ प्रभु सब समरथ हम यह लोरें । 'भूधर' * अरज करत कर जोरै ॥१०॥ . ४२-भूधस्कृत स्तुति। .: ढाल परमादी - अहो जगतगुरु एक, सुनिये अरज हमारी। तुम प्रभु! दीनदयाल, मै दुखिया संसारी ॥ इस भवबनके मांहि, काल अनादि गमायौ । भ्रमत चहूं गतिमांहि, सुख नहिं । दुख बहु पायो । कर्म महारिपु जोर, एक न कान करें जी। मनमानौ दुख देहि, काहूसों न ड जी ॥ कबहुं इतर । निगोद, कवहूं नरक दिखावै । सुर नर पशुगतिमाहिं बहुविधि नाच नचावें ॥ प्रभु ! इनके परसंग, भव भवमाहि । बुरे जी। जो दुख देखे देव ! तुम सौं नहिं दुरेजी ॥ एक * जनमकी वात, कहि न सकौं सुनि स्वामी । तुम अनंत पर* जाय, जानत अंतरजामी ॥ मैं तो एक अनाथ, ये मिलि । दुष्ट घनेरे । कियौ बहुत वेहाल सुनियौ साहिब मेरे ॥ ज्ञान * महानिधि लूटि, रंक निबल करि डारयो । इनहीं तुम मुझ-4 माहि, हे जिन ! अंतर पारयो ।पाप पुण्यकी दोय, पायनि । * बेडी डारी । तनकाराग्रहमाहि, मोहि दियो दुख भारी॥ इनको नेक विगार, मै कछु नाहिं कियो जी । विन कारन । जगवंद्य, बहुविधि वैर लियौजी ।। अब आयौ तुम पास, सुन । * जिन सुजस तिहारौ । नीति- निपुन महाराज, कीजै न्याव । * हमारौ । दुष्टनि देहु निकास साधुनिकौ रखि लीजै । विनवै । * "भूधरदास' हे.प्रभु ढील न कीजै ।। . .
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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