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________________ ---- ---- -154 • वृहज्जैनवाणीसंग्रह ५३ aorminar AnAAAAAAAnnanohnAAAAAAAAAAAAAN NANAAAAAAnamon. पांव में बेरी । उस वक्त तुम्हें ध्यानमें ध्याया था सवेरी ॥ तत्काल ही सुकुमालकी सब झड पडी बेरी । तुम राजकुँवरकी सभी दुखदंद निवेरी ॥ हो० ॥१८॥ जब सेठके नंदनको डसा नाग जु कारा। उस वक्त तम्हें पीरमें धर धीर * पुकारा ।। ततकाल ही उस बालका विष भूरि उतारा ।। वह जाग उठा सोके मानों सेज सकारा हो०॥ १९॥ मुनिक मानतुंगको दई जब भूपने पीरा । तालेमें किया बंद भरी। लोहजजीरा । मुनिईशने आदीशकी थुति की है गंभीरा।" चक्रेश्वरी तब आनिके सब दूरकी पीरा हो॥२०॥ शिव+ कोटिने हट था किया सामंतभद्रसों ॥ शिवपिंडकी चंदन । करौं शंकों अभद्रसों ॥ उस वक्त स्वयंभू रचा गुरु भावभद्रॐ सो । जिनचंद्रकी प्रतिमा तहां प्रगटी सुभद्रसों हो॥२१॥ सूवेने तुम्हें आनिक फलं आम चढाया। मेंढक ले चला। फूल भरा भक्तिका भाया ॥ तुम दोनोंको अभिराम स्वर्ग* धाम बसाया । हम आपसे दातारको लख आज ही पाया ॥ हो०॥ कपि स्वान सिंह नेवला अज बैल विचारे! तियंच जिन्हें रंच न था बोध चितारे । इत्यादिको सुरधाम दे । शिवधाममें धारे । हम आपसे दातारको प्रभु आज निहारे। हो० ॥ २३ ॥ तुमही अनंत जंतुका भयभीर निवारा। * वेदोपुरानमें गुरू गणधरने उचारा॥ हम आपकी। सरनागतीमें आके पुकारा । तुम हो प्रत्यक्ष कल्पवृक्ष । इच्छिताकारा हो॥२४॥ प्रभु भक्त व्यक्त भक्त जक्त मुक्त
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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