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________________ -- - - -- -- ---- ----- बृहज्जैनवाणीसंग्रह Ah * ज्ञान उर जागा॥ १३॥ तुम सब लायक उपगारी। मैं | दीन दुखी संसारी ॥ तातें सुनिये यह अरजी । तुम शरन । लियो जिनवरजी ॥ १४ ॥ मै जीवद्रव्य विन अंग। लाग्यो । अनादि विधि संग ।। सास निमित पाय दुख पाये । हम । * मिथ्यातादि महाये ॥ १५ ॥ निजगुन कवहूं नहिं भाये ।। सब परपदार्थ अपनाये । रति अरति करी सुखदुख मैं ॥ । हकरि निजधर्मविप्मुख मैं ॥१६॥ परचाह दाह नित दाह्यो। * नहिं शांतिसुधा अवगाह्यो ॥प्रभु नारकनरस्वरतिगमें । चिर । भ्रमत भयौ भ्रममतमें ॥ १७ ॥ कीने बहु जामन मरना। * नहिं पायौ सांचौ शरना ॥ अव भाग उदय मो आयौ । तुम के दर्शन निमल पायौ ॥ १८ ॥ अति शांत भयो उर मेरो। बाढयो उछाह शिवकेरो पर विषयरहित आनंद । निज रस चाख्यो निरद्वंद ॥ १९ ॥ मुझ कामतने कारन हो । तुम । देव तरन तारन हो ॥ तातै ऐसी अव कीज्यो । तुम चरन भक्ति मोहि दीज्यो ॥२०॥ दृगज्ञान चरन परिपूर। पाऊं निश्चय भवचूर ।। दुखदायक विषय कषाय । इनमै परनति ॐ नहिं नाय ॥२१॥ सुररान समान न चाहौ । आतम समा-1 घि अवगाहो ॥ अरु इच्छा हो मनमानी। पूरी सब केवल ज्ञानी ॥२२॥ * दोहा-गनपति पार न पावहीं, तुमगुनजलधि विशाल । __'भागचंद' तुव भक्ति ही' करै हमें वाचाल ॥ २३ ॥
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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