SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 404
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ vvvvvvxxx -~ - ~ **- -- - - --- वृहज्जनवाणीसंग्रह ५२७ समायौ रे ॥अबकी बार ॥२॥ त्रस थावरकी, हालत दुख* की। धरि धरि काल गमायौ रे ।।अबकी बार०॥३॥ आज ! मनुज भव, श्रीजिनवरं रख । प्रभु संयोग मिलायौ रे॥ । अबकी बार ॥४॥ कुंज' स्वपद गहि, कर्म पुंज दहि । आज समय शुभ पायौ रे| अबकी बार० ॥५॥ ३५८-दानोपदेश सवैया। दान करो भवि मोह हरो धन खर्च भरो निधि पुण्य कमाई।। आज सुवक्त मिला तुमको गहि चेतन क्यों न वडी पमुताई। । बैठि यहां किमि सोच करै करि सोचर दिन रात विताई * 'कुंज' कहैं शुभभाव धरो प्रभु पुष्पमाल गहि मन हरपाई ॥ ३५६-वस्तुक्षणभंगुरता सवैया । । गेह पुरी धन धान्य कुटुम्ब समी विनशै विजुली सम भाई । । पुत्र कलत्र सुमित्र सभी जन छोडि भगे न रहें दुखदाई॥ चंचल द्रव्य समान रहै नहिं चन्द्र समान वटै बढ़िनाई ।। । 'कुंज' कहै शुभ भाव धरो हिय पुष्पमाल प्रभुकी सुखदाई।। ३६०-द्रव्यकार्य सवैया । द्रव्य धनी अघहेतु कही पण पुण्यमयी जिन पुण्य लगाई। चंचल द्रव्यसे पुण्य कमें थिर, क्यों न गहै तू यह प्रभुताई ॥ वक्त गये पछितायगा चेतन भावऔ वक्त मिलै न मिलाई । * 'कुंज' कहै शुभभाव धरो जुगहो जिन माल बडी सुखदाई॥ ३.१-पात्रदानफल सबैया। * उत्तम मध्यम और जघन्य सुपात्रन दान दियो जिन भाई।। KHAR Com
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy