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________________ 4 ArunanAAAAAAAAAAAAAAAAAAANA 52 -229- बृहज्जैनवाणीसंग्रह ' ५२५ रत्न जवाहर साथरे ॥ परलोक० ॥ चलेगा सम्यग्ज्ञान । चलेगी जिनवर आन | चलेगा प्रेमी निजगुण ही तेरे साथ । रे॥ परलोक० ॥ पात्रोंको दे दो दान । हो निज परका कल्यान । सुन सज्जन लक्ष्मी जावे किसी के साथ रे ॥पर ॥ जग इन्द्रजालका खेल । दुःखोंकी रेलम्पेल । प्रभु भव दुख नाशो 'कुंज' नवावे निज माथ रे॥परलोक०। ३५४-मुनिसंघस्तवन * मुनिसंघ तुझे हम नमन करें, भवदुःख जलधिसे तारो । हमें । निष्कारण बंधु तुम्हीं जगके करि कृपा पधारि सुधारि । हमें टेका। बहुतोंको तारि दिया तुमने अब आकर श्री *गुरु तारि हमें । थी आश सुखद शुभ दर्शनकी लखि नेत्र। । तृप्ति भये आज तुम्हें ।मु०॥ तेरे पग पडिगये जहां २ सब। + सुधरि गये भवि वहां २ । तप तेज देखि मुनिवर तुमको 1. सब जीव भक्तिवश होय नमें ।।मु०॥ है आगमोक्त आच-" औरण सभी जिनमें नहिं आता दोष कमी। सद्गुणथानक मुनिसंघ तुझे कर जोर होय नत भाल नमें ।मु०॥ जिसने । तुमको टुक देख लिया उसने अपना कल्याण किया । अब 'कुंज' दास तुव चरणनमें नमि चहै मुक्ति दो नाथ हमें।।मु०॥ ३५५-ऋषभजिनेन्द्रस्तुति । ऋषम तुम वेगि हरो मम पीर ।। टेक ॥ दावानल सम जग माही संतप्त शरीर । प्रभुके शांति निकेतन माही शीतल वहति समीर ॥ऋषभः॥ विष सम विषय बिभुजे मैने
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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