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________________ *RRRRRRRRRRR Khan vvvvvvvvvvvvvvvvvvvvvv ४.३० बृहज्जैनवाणीसग्रह * देव भेव षटद्रव्य प्रकाशक ।। जय जय श्रीजिनदेव, एक जो * पानी ध्यावै । जै जै श्री जिनदेव, टेव अहमेव मिटाबै । जै जै । श्रीजिनदेव प्रभु, हेय कामरिपु दलनको । हूजै सहाय संघ रायजी, हम तयार सिवचलनकौ ॥ * जैजिनंद आनंदकंद, सुरदवंद्यपद । ज्ञानवान सब जान, * सुगुन मनिखान आनपद ॥ दीनदयाल कृपाल, भविक । भोजाल निकालक । आप बूझ सब सूझ, गूझ नहिं बहुजन पालक । प्रभु दीनबंधु करुनामयी, जगउधरन तारनतरन। दुखरासनिकास खदासकौं, हमैं एक तुमही सरन ॥८॥ देखनीक लखिरूप, बंदिकरि चंदनीक हुव । पूजनीक पद का पूज, ध्यानकरि ध्यावनीक धुव । हरष बढाय बजाय, गाय * जस अंतरजामी । दरब चढाय अघाय, पाय संपति निधि स्वामी ॥ तुमगुण अनेक मुख एकसों कौन भांति वरनन । करौं । मनवचनकायबहुप्रीतिसौं, एक नामहीसौं त ॥९॥ * चैत्यालय जो करै, धन्य सो श्रावक कहिये । तामै प्रतिमा *धरै, धन्य सो भी सरदहिये ॥जो दोनों विस्तरै, संघनायक * ही जानौ । बहुत जीवको धर्म, मूलकारन सरधानौ । इस * दुखमकाल विकरालमें, तेरो धर्म जहां चले। हे नाथ काल । चौथो तहां, ईति भीति सवही टलै॥१०॥ * दर्शन दशक कवित्त, चित्तसों पढे त्रिकालं । प्रीतम सन* मुख होय, खोय चिंता गृहजालं॥ सुखमें निसिदिन जाय, अंत सुरराय कहावै । सुर कहाय शिव पाय, जनम मृति । R -RS- 2525-2
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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