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________________ wwwwwwwwwww Wwwwwwvo वृहज्जैनवाणीसंग्रह ४७९ हेत ॥ राजगृही तहँ नगरि बसाय । राजा श्रेणिक राज, 4 * कराय ॥२॥ विपुलाचल जिनबीर कुँवार । केवलज्ञान विरा- " जत सार ॥ माली आम जनावो दयो। ततछिन राजां। बंदन गयो ॥३॥ पूजा वंदन कर शुभ सार। लाग्यों पूछन । * प्रश्न विचार ।। हे स्वामी रत्नत्रयसार । व्रत कहिये जैसा * व्यवहार ॥४॥ दिव्यध्वनि भगवान बताय। भादोंसुदि द्वादश शुभ माय । कर स्नान स्वच्छ पट श्वेत । पहिनो जिनपूजनके हेत ॥५॥ आठों द्रव्य लेय शुभ जाय । पूजो । जिनवर मनवचकाय ॥ जीरण नूतन जिनके गेह । बिंब । * धरावो तिनमैं तेह ॥६॥ हेमरूप्य पीतलके यंत्र । तांबा यथा ! भोजके पत्र ॥ यंत्र करो बहु मन थिर देव । रत्नत्रयके गुण लिख लेव ॥७॥ निशंकादि दर्शन गुण सार। संशयरहित । । सु ज्ञान अपार । अहिंसादि महाव्रत सार। चारितके ये गुण हैं धार ।।८॥ ये तीनोंके गुण हैं आदि। इन्हें आदि । * जेते गुण वाद ॥ शिवमारगके साधनहेत । ये गुण धारै व्रती सुचेत ॥९॥ भादों माघ चैत्रमें जान । तीनों काल करो भवि + आन । याविधि तेरह बरस प्रमान । भावन भावै गुणहि । निधान ॥१०॥ लवंगादि अष्टोत्तर आन । जपो मंत्र मनकर है श्रद्धान ॥ पुनि उद्यापन विधि जो एह । कलशा चमर छत्र । * शुभ देह ।।११।। संघ चतुर्विधको आहार । वस्त्राभरण देहु । शुभसार ॥ विघप्रतिष्ठा आदि अपार। पूजो श्रीजिन हो। भवपार ॥१२॥
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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