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________________ NAV वृहज्जैनवाणीसंग्रह ४५५ गणरयणा, मूरख छिन न सँभाले । काचसमान विषयसुख • साटै ते गहि तीनौं राले ॥५॥ गहि तीनौ रयणा तनमन. वयणा, चर निज चरन सयान । डंडसि करुणा खंडसि म। यणा, मंडसि धरमहि ध्यान ॥ मंडसि ध्यान कर्मछयकारण, * कारण काज दिखावै। कान सुदंसण ज्ञान सकति सुख, सहजहि चारौं पावै ।। बहुड़ि न कोई रहै कृतकर्मह, जो जग जीवा ताणै। एक समयमैं केवलज्ञानी, अतीत अनागत जाणै ॥६॥ अतीत अनागत देखत जानत, सो हम लख्यो । न देव । जो हूं देखत देखि जु हरखत, हरखि करत तसु। * सेवा॥ हरखि हरखि तसु सेव करता, जिन आपनसौ कीनौं। मोहनधूलि घरी सिर ऊपरि, ठगि रणयत्तो लीनौं । अब श्रीकुंदकुंदगुरुपयणा, जिन विन घड़ि न सुहावै । आपणडागुण सहज सुनिर्मल, यौं जिनदासहि गावै ॥७॥ इति ॥ । ग्यारहवां अध्याय । कथासंग्रह २३८-निशिभोजन जन कथा दोहा-नमों सारदा सार बुध, करें हरै अघ लेप। - निशिभोजन जन कथा, लिखू सुगम संक्षेप ॥१॥ । * जम्बूद्वीप जगत विख्यात भरतखंड छबि कहिय न । जात ॥ तहां देश कुरुजांगल नाम । हस्तनागपुर उत्तम ठाम ॥ यशोभद्र भूपत गुण बास। रुद्रदत्त द्विज मोहित
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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