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________________ बृहज्जैनवाणीसंग्रह अनुभव चित दीना । तिनही विधि आवत रोके, संवर लहि सुख अवलोके ॥८॥ ९ निर्जरा भावना - निजकाल पाय विधि झरना, तासौं निज काज न सरना । तपकरि जो करम खिपावै, सोई शिवसुख दरसावै ॥९॥ १० लोक भावना - किन हू न करचो न धरै को, पटद्रव्यमयी न हरै को । ता लोकमाहि विन समता, दुखसहै जीव नित भ्रमता ॥१०॥ ११ बोधदुर्लभ भावना - अंतिम ग्रीवकलोंकी हद, पायो अनंत विरियां पद । पर सम्यकज्ञान न लाभ्यो, दुर्लभ निजमें मुनि साध्यो ॥११॥ १२ धर्म भावना - जो भाव मोहतै न्यारे, हग ज्ञानव्रतादिक सारे । सो धर्म जत्रै जिय धारै. तब ही सुख अचल निहारै ||१२|| सो धर्म मुनिन करि धरिये, तिनकी करतूत उच्चरिये । ताको सुनिके भविप्रानी, अपनी अनुभूति पिछानी || २२९ - बज्रनाभि चक्रवर्तीकी वैराग्यभावना । दोहा - बीज राख फल भोगवे, ज्यों किसान जगमांहिं । त्यों चक्री नृप सुख करै, धर्म विसारै नाहिं || योगीरासा वा नरेद्रछंद । इहविध राज करै नरनायक, भोगे पुण्य विशालो । सुख सागर मैं रमत निरंतर, जात न जान्यो कालो || एक दिवस शुभ कर्मसँजोगे क्षेमंकर मुनि बंदे | देख सिरीगुरुके पदपंकज
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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