SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 332
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बृहज्जैनवाणीसंग्रह ४२७ AAVAAAAA चिरभव डोले । जिहँ जाने ते शिवपट खोले || करौं ० ॥३॥ व्रती अविरती विधव्योहारा । सो तिहुँकालकरमसों न्यारा ॥ करौं' ॥४॥ गुरुशिख उभय वचनकरि कहिये । वचनानीत दशा तस लहिये || करौं ||५|| स्वपरभेदको खेद उछेदा । आप आपमें आप निवेदा || करौं ||६|| सो परमातम शिव-सुखदाता | होहि 'विहारीदास' विख्याता|| करौं० ||७|| २२१ - आरती श्रीवर्द्धमानजीकी । करौं आरती चर्द्धमानकी । पावापुर निरवान थानकी । करौ० ||टेक || राग-विना सब जग तन तारे । द्वेष विना सब करम विदारे || करौं ० || || शील- धुरंधर शिद-तियभोगी । मनवचकायन कहिये योगी || करौं ||२|| रतनत्रय निधि परिगह-हारी । ज्ञानसुधा भोजनव्रतधारी ॥ करौं ||३|| लोक अलोक व्याप निजमाही । सुखमय इन्द्रिय सुखदुख नाहीं || करौं ||४|| पंचकल्याणकपूज्य विरागी । विमलदिगंबर अंवरत्यागी ॥ करौं ० ||५|| गुनमनि भूषन भूषित स्वामी । जगतउदास जगतरजामी ॥ करौं ० ६ ॥ कहैं कहां लौं तुम सब जानौ । 'द्यानत' की अभिलाष प्रमानौं ॥७॥ २२२ - आरती निश्चयआत्माकी । चौपाई - मंगलिआरति आतमराम | तनमंदिर मन उत्तम ठाम || मंगल० ॥ टेक ॥ समरसजलचंदन आनंद । तंदुल तत्त्वस्वरूप अमंद || मंगल ० ||१|| समयसारफूलन की माल |
SR No.010576
Book TitleVruhhajain Vani Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAjitvirya Shastri
PublisherSharda Pustakalaya Calcutta
Publication Year1936
Total Pages410
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy